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धर्मशास्त्र और द्वादशांगी
महिमाशाली होकर भी साधारण धर्म शास्त्र मानव जगत् का उतना कल्याण नहीं कर पाते जितना कि उनसे अपेक्षित है। जिनके गायक या रचयिता स्वयं ही सरागी, भोगी एवं अज्ञान युक्त हैं, वे ग्रन्थ भला मानव का अभिलाषित उपकार कहाँ तक कर सकते हैं ? अत: वीतराग, आप्त पुरुषों की वाणी या तदनुकूल सत्पुरुषों की वाणी ही मानव-कल्याण में समर्थ मानी गई है ।
अनादिकाल की नियत मर्यादा है कि तीर्थकर भगवान को जब केवलज्ञान की प्राप्ति हो जाती है तब वे श्रुतधर्म और चारित्रधर्म की देशना देकर चतुर्विध संघ की स्थापना करते हैं। उस समय उनके परम प्रमुख शिष्य गणधर, प्रत्यक्षदर्शी तीर्थंकरों की अर्थ रूपी वाणी को ग्रहण कर उसे सूत्र रूप में गूंथते हैं। जैसे चतुर माली लता से गिरे हुए फूलों को एकत्र कर हार बनाता है और उससे मानव का मनोरंजन करता है ।
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गणधरों द्वारा गूँथे गये (रचे गये) वे प्रमुख सूत्र - शास्त्र ही द्वादशांगी के नाम से कहे जाते हैं । जैसे कि कहा है
अत्यं भासइ अरहा, सुत्तं गंभंति गणहरा निउणं । सासणस्स हियद्वार, तओ सुत्तं पवत्तइ 11
अर्थात् तीर्थकर भगवान अर्थरूप वाणी बोलते हैं और गणधर उसको ग्रहण कर शासन हित के लिए निपुणतापूर्वक सूत्र की रचना करते हैं तब सूत्र की प्रवृत्ति होती है। शब्दरूप से सादि सान्त होकर भी यह द्वादशांगी श्रुत अर्थरूप से नित्य एवं अनादि अनन्त कहा गया है। जैसा कि नन्दी सूत्र में उल्लेख है
“से जहा नामए पंच अत्थिकाए न कयाइ नासी, न कयाइ नत्थि, न कयाइ न भविस्सइ, भुविं य, भवइ य, भविस्सह य, ध्रुवे नियए सासए अक्खए अन्वर अवट्टिए णिच्चे एवामेव दुवालसंगे गणिपिडगे न कयाइ नासी, न क्याइ नत्थि, न क्याइ न भविस्सइ, भुविं च भवइ य, भविस्सइ य, धुर्वे, नियए सासए, अक्खए, अव्वए, अवट्ठिए णिच्चे । (नंदी सूत्र)”
अर्थात् पंचास्तिकाय की तरह कोई भी ऐसा समय नहीं था, नहीं है, और नहीं होगा जबकि द्वादशांगी श्रुत नहीं था, नहीं है या नहीं रहेगा । अत: यह द्वादशांगी नित्य है । जैसाकि पहले कह गए हैं कि शब्द रूप से द्वादशांगी सादि सान्त है। प्रत्येक तीर्थंकर के समय गणधरों द्वारा इसकी रचना होती है, फिर भी अर्थ रूप से यह नित्य है । इस प्रकार महर्षियों ने शास्त्र की अपौरुषेयता का भी समाधान कर दिया है । उन्होंने अर्थरूप से शास्त्रज्ञान को नित्य, अपौरुषेय एवं शब्द रूप से सादि एवं पौरुषेय कहा है ।
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श्वेताम्बर-परम्परा के अनुसार अब भी द्वादशांगी के ग्यारह अंगशास्त्र विद्यमान हैं और सुधर्मा स्वामी की वाचना प्रस्तुत होने से इनके रचनाकार भी सुधर्मा स्वामी माने गये हैं। ग्यारह अंग हैं-1. आचारांग, 2. सूत्रकृतांग, 3. स्थानांग, 4. समवायांग, 5. भगवतीसूत्र, 6. ज्ञाता धर्म कथा, 7. उपासक दशा, 8. अंतकृदशा,