SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 92
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ { 56 [आवश्यक सूत्र स्कन्ध, कल्प और व्यवहार के कालों से, सत्तावीसाए अणगारगुणेहिं = साधुजी के सत्ताईस गुणों में लगे दोषों से, अट्ठावीसाए आयारप्पकप्पेहि = अट्ठाइस प्रकार के आचार प्रकल्पों में लगे दोषों से, एगूणतीसाए पावसुयप्पसंगेहिं = उनतीस पाप सूत्र के प्रसङ्गों से, तीसाए महामोहणीय = तीस प्रकार के महामोहनीय, ठाणेहिं = बन्ध के स्थानों के सेवन से, एगतीसाए सिद्धाइगुणेहिं = इकतीस सिद्ध भगवान के अतिशय गुणों में शंका करने से, बत्तीसाए जोगसंगहेहिं = बत्तीस प्रकार के योग-संग्रह न करने से, तेत्तीसाए आसायणाए = तैंतीस प्रकार की आशातना से, प्रतिक्रमण करता हूँ। अरिहंताणं आसायणाए = अरिहन्त भगवान की आशातना से, सिद्धाणं आसायणाए = सिद्ध भगवान की आशातना से, आयरियाणं आसायणाए = आचार्यों की आशातना से, उवज्झायाणं आसायणाए = उपाध्यायों की आशातना से, साहूणं आसायणाए = साधुओं की आशातना से, साहुणीणं आसायणाए = साध्वियों की आशातना से, सावयाणं आसायणाए = श्रावकों की आशातना से, सावियाणं आसायणाए = श्राविकाओं की आशातना से, देवाणं आसायणाए = देवताओं का अस्तित्व नहीं मानने रूप आशातना से, देवीणं आसायणाए = देवियों की आशातना से, इहलोगस्स आसायणाए = इस लोक की (मनुष्य आदि की) आशातना से, परलोगस्स आसायणाए = परलोक-देव, नारक वगैरह की मिथ्या प्ररूपणा आदि से की हुई आशातना से, केवलिपण्णत्तस्स = केवलि प्ररूपित दयामय अनेकान्त रूप, धम्मस्स आसायणाए = धर्म की अश्रद्धा-मिथ्या प्ररूपणा आदि से की हुई आशातना से, सदेवमणुयासुरस्स लोगस्स = देवता, मनुष्य और असुर सहित लोक की, आसायणाए = आशातना से, सव्वपाण-भूयजीव-सत्ताणं आसायणाए = सभी बेइन्द्रियादि प्राणी, वनस्पति, पंचेन्द्रिय जीव, पृथ्वी आदि स्थावर जीवों की आशातना से, कालस्स आसायणाए = काल की आशातना से, सुयस्स आसायणाए = श्रुत की आशातना से, सुयदेवयाए आसायणाए = श्रुत देवता (तीर्थङ्कर तथा गणधर) की आशातना से, वायणायरियस्स आसायणाए = वाचनाचार्य की आशातना से। भावार्थ-अविरति रूप एकविधि असंयम का आचरण करने से जो भी अतिचार-दोष लगा हो, उसका प्रतिक्रमण करता हूँ। दो प्रकार के बंधनों से लगे दोषों का प्रतिक्रमण करता हूँ अर्थात् उनसे पीछे हटता हूँ। दो प्रकार के बंधन हैं-1. राग बंधन एवं 2. द्वेष बंधन। तीन प्रकार के दण्डों से लगे दोषों का प्रतिक्रमण करता हूँ। तीन दंड-1. मनोदंड 2. वचनदंड एवं 3. कायदंड। तीन प्रकार की गुप्तियों से अर्थात् उनका आचरण करते हुये प्रमादवश जो भी गुप्तियों संबंधी विपरीताचरण रूप दोष लगे हों, उनका प्रतिक्रमण करता हूँ। तीन गुप्तिमनोगुप्ति, वचनगुप्ति एवं कायगुप्ति। तीन प्रकार के शल्यों से होने वाले दोषों का प्रतिक्रमण करता हूँ। तीन शल्य-मायाशल्य, निदानशल्य और मिथ्यादर्शनशल्य।
SR No.034357
Book TitleAavashyak Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimalji Aacharya
PublisherSamyaggyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages292
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy