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________________ तृतीय अध्ययन - वंदना] 33} आवस्सियाए-अवश्य करने योग्य । चरणसत्तरी, करणसत्तरी रूप श्रमण के योग आवश्यक कहे जाते हैं । आवश्यक करते समय प्रमादवश जो रत्नत्रय की विराधना हो जाती है, वह आवश्यिकी कहलाती है। अत: आवस्सियाए पडिक्कमामि' का अभिप्राय यह है कि मेरे से आवश्यक योग की साधना करते समय जो भूल हो गयी हो, उस आवश्यिकी भूल का प्रतिक्रमण करता हूँ। किन्हीं के मत से-जैसे आवश्यक कार्य के लिए अपने स्थान से बाहर जाने पर ‘आवस्सहीआवस्सही' कहा जाता है । उसी प्रकार यहाँ खमासमणो में 33 आशातनाओं का पहले चिन्तन करने के लिए गुरु के अवग्रह से बाहर निकलना होता है, अर्थात् आवश्यक कार्य करने के लिए पडिक्कमामि' अर्थात् अपने स्थान से पीछे हटता हूँ, आपके अवग्रह से बाहर निकलता हूँ। कोहाए-(क्रोधा) क्रोधवती आशातना-क्रोध के निमित्त से होने वाली आशातना ‘क्रोधा' अर्थात् क्रोधवती कहलाती है। सव्वकालियाए-आचार्य जिनदास सर्व अतीत काल ग्रहण करते हैं। 'सव्वकाले भवा सव्वकालिगी-पक्खिया, चाउम्मासिया, संवच्छरिया इहं भवे अण्णेसु वा अतीतेसु भवग्गहणेसु सव्वमतीतद्धाकाले।' आचार्य हरिभद्र त्रिकाल ग्रहण करते हैं 'अधुनेहमान्यभवर्गताऽतीतानागत काल संग्रहार्थमाह। सर्वकालेन अतीतादिना निर्वृता सार्वकालिकी तया ।।' भविष्य में गुरुदेव की आज्ञा के लिए किसी प्रकार की अवहेलना का भाव रखना, संकल्प करना अनागत आशातना है। 000
SR No.034357
Book TitleAavashyak Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimalji Aacharya
PublisherSamyaggyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages292
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size2 MB
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