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________________ 7} प्रथम अध्ययन - सामायिक ] सामायिक चारित्र को ग्रहण करते हैं। चारित्र के पाँच प्रकार हैं। उनमें सामायिक चारित्र प्रथम है। सामायिक चारित्र चौबीस ही तीर्थङ्करों के शासन काल में रहा है, पर अन्य चार चारित्र अवस्थित नहीं हैं। श्रमणों के लिए सामायिक प्रथम चारित्र हैं, तो गृहस्थ साधकों के लिए सामायिक चार शिक्षाव्रतों में प्रथम शिक्षाव्रत है। जैन आचारदर्शन का भव्य प्रासाद सामायिक की सुदृढ़ नींव पर आधृत है। समत्ववृत्ति की साधना किसी व्यक्ति विशेष या वर्ग विशेष की धरोहर नहीं है। वह सभी साधकों के लिए है और जो समत्ववृत्ति की साधना करता है वह जैन है। आचार्य हरिभद्र ने तो स्पष्ट रूप से कहा है कि साधक चाहे श्वेताम्बर हो, चाहे दिगम्बर हो, बौद्ध हो या अन्य किसी मत का हो, जो भी समभाव में स्थित होगा वह नि:संदेह मोक्ष को प्राप्त करेगा। एक व्यक्ति प्रतिदिन एक लाख स्वर्ण मुद्राओं का उदारतापूर्वक दान करता है, दूसरा व्यक्ति समत्वयोग की साधना करता है, इन दोनों में महान् कौन है? इस जिज्ञासा का समाधान करते हुए तत्त्वदर्शी मनीषियों ने कहा-जो समत्वयोग-सामायिक की साधना करता है, वह महान् है। करोड़ों वर्षों तक तपश्चरण की निरन्तर साधना करने वाला जिन कर्मों को नष्ट नहीं कर पाता, उनको समभावी साधक कुछ ही क्षणों में नष्ट कर लेता है। कोई भी साधक बिना समभाव के मुक्त नहीं हुआ है और न होगा ही। अतीत काल में जो साधक मुक्त हुए हैं, वर्तमान में जो मुक्त हो रहे हैं तथा भविष्य में जिन्हें मुक्त होना हैं, उनके मुक्त होने का आधार सामायिक था/ है/रहेगा। सामायिक एक विशुद्ध साधना है। सामायिक में साधक की चित्तवृत्ति क्षीरसमुद्र की तरह एकदम शान्त रहती है, इसलिये वह नवीन कर्मों का बंध नहीं करता आत्मस्वरूप में स्थित रहने के कारण जो कर्म शेष रहे हुए हैं, उनकी वह निर्जरा कर लेता है। इसीलिए आचार्य हरिभद्र ने लिखा है कि सामायिक की विशुद्ध साधना से तीव्र घातिकर्मों को नष्ट कर केवल ज्ञान को प्राप्त कर लेता है। 1. सेयम्बरो वा आसम्बरो वा बुद्धो वा तहेव अन्नो वा। समभावियप्पा लहेइ मुक्खं न संदेहो।। -हरिभद्र 2. दिवसे दिवसे लक्खं देइ सुवण्णस्स खंडियं एगो। एगो पुण सामाइयं , करेइ न पहुप्पए तस्स ।। 3. तिव्वतवंतवमाणो जं न वि निवट्टइ उ जम्मकोडीहिं। तं समभाविअचित्तो, खवेइ कम्मं खणद्धण ।। 4. सामायिक-विशुद्धात्मा सर्वथा घातिकर्मणः। क्षयात्केवलमाप्नोति लोकालोकप्रकाशकम्।। -हरिभद्र अष्टक-प्रकरण, 30-1 आचार्य पूज्यपाद ने सर्वार्थ सिद्धि में सामायिक की परिभाषा करते हुए लिखा है-सम उपसर्ग पूर्वक गति अर्थ वाली ‘इण' धातु से 'समय' शब्द निष्पन्न होता है । सम्-एकीभाव, अय गमन अर्थात् एकीभाव के द्वारा बाह्य परिणति से पुनः मुड़कर आत्मा की ओर गमन करना समय है, समय का भाव सामायिक है। आचार्य मलयगिरि ने लिखा है-राग-द्वेष के कारणों में मध्यस्थ रहना सम हैं। मध्यस्थ भावयुक्त साधक की
SR No.034357
Book TitleAavashyak Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimalji Aacharya
PublisherSamyaggyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages292
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size2 MB
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