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{ xxix } (2) उत्तरगुण प्रत्याख्यान के भी दो भेद है-(1) सर्व उत्तरगुण प्रत्याख्यान (2) देश उत्तर गुण प्रत्याख्यान। श्रावक के तीन गुणव्रत और चार शिक्षा व्रत-देश उत्तर गुण प्रत्याख्यान है। सर्व उत्तर गुण प्रत्याख्यान में अनागत आदि दस तरह के प्रत्याख्यान आते हैं। जो साधु व श्रावक दोनों के लिए समादरणीय, ग्रहणीय है। दस तरह के प्रत्याख्यान-(1) अनागत (2) अतिक्रांत (3) कोटि सहित (4) नियंत्रित (5) साकार (6) निराकार (7) परिमाण कृत (8) निरवशेष (9) सांकेतिक (10) अद्धा प्रत्याख्यान। (भगवती 7/2)
अद्धा प्रत्याख्यान के दस भेद-(1) नवकारसी (2) पौरुषी (3) पूर्वाद्ध (4) एकासन (5) एकस्थान (एकल ठाणा) (6) आचाम्ल (आयंबिल) (7) उपवास (8) दिवसचरिम (9) अभिग्रह (10) निर्विकृतिक (नींवी)। प्रत्याख्यान की शुद्धि के लिए ठाणांग सूत्र में पाँच व नियुक्तिकार ने छह शुद्धियाँ बताई है
(1) श्रद्धान शुद्धि-यानि शास्त्रोक्त प्रत्याख्यान पर श्रद्धान होना चाहिए। (2) ज्ञान विशुद्धि-प्रत्याख्यान का स्वरूप समझकर प्रत्याख्यान करना। (3) विनय विशुद्धि-विनय-वंदन पूर्वक प्रत्याख्यान ग्रहण करना। (4) अनुभाषण शुद्धि-गुरुदेव के समक्ष पाठों का सही उच्चारण करते हुए व्रत स्वीकार करना।
(5) अनुपालना शुद्धि-विपरीत परिस्थिति होने पर भी ठीक तरह से दृढ़ता से स्वीकृत व्रत की परिपालना करना।
(6) भाव विशुद्धि-पवित्र परिणामों से व्रत का परिपालन करना।
किसी भी प्रकार की भौतिक कामना के लिए प्रत्याख्यान नहीं करना चाहिए। दशवैकालिक सूत्र के नवम अध्ययन के चतुर्थ उद्देशक में कहा है-इस लोक, परलोक की कामना के लिए नहीं, न ही कीर्ति यश, श्लाघा आदि पाने के लिए तप करे, एकमात्र निर्जरा के लक्ष्य से, मुक्ति प्राप्ति हेतु ही तप करें।
उत्तराध्ययन सूत्र के 29वें अध्ययन में प्रत्याख्यान का सुंदर फल निरुपित किया-प्रत्याख्यान से साधक आस्रव द्वारों को बंद कर देता है, इच्छाओं का निरोध कर लेता है-सभी विषय-भोगों के प्रति विगततृष्णा वाला हो जाता है-इससे वह शांतचित्त होकर अध्यात्म में विचरण करता है। सत्य ही है भोग तो शांति का भक्षण ही करता है, त्याग ही शांति का रक्षण करता है। कहा भी है- देहस्य सारं व्रत धारणं च। इस मानव देह का अगर कोई सार है. तो वह व्रतों को धारण करना। व्रत रूप गणों को धारण कराने वाला होने से अनयोग द्वारा सूत्र में इस प्रत्याख्यान का अपर नाम गुण धारण बताया है।
कई लोग कहते हैं कि नियम लेकर तोड़ने की अपेक्षा नियम नहीं लेना अच्छा है। नियम तोड़ने में ज्यादा पाप है। ऐसी उनकी धारणा है। पर जरा विचार करके देखें। नियम नहीं लेने वाला पूर्ण रूप से अव्रत में