SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 283
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ परिशिष्ट-4] 247} विशेषण है । जैन साहित्य में 'निग्गथं' शब्द सर्वतोविश्रुत हैं। 'निग्गंथ' का संस्कृत रूप निर्ग्रन्थ' होता है । निर्ग्रन्थ का अर्थ है- धन, धान्य आदि बाह्य ग्रन्थ और मिथ्यात्व, अविरति तथा क्रोध, मान, माया आदि आभ्यन्तर ग्रन्थ अर्थात् परिग्रह से रहित, पूर्ण त्यागी एवं संयमी साधु । "बाह्याभ्यन्तरग्रन्थनिर्गताः साधवः" निर्ग्रन्थों-अरिहंतों के प्रवचन नैर्ग्रन्थ्य प्रवचन हैं। 'निर्ग्रन्थानामिदं-नैर्ग्रन्थ्यं प्रावचनमिति'-आचार्य हरिभद्र । मूल में जो 'निग्गंथं' शब्द है, वह निर्ग्रन्थ वाचक न होकर नैर्ग्रन्थ्य वाचक है। अब रहा ‘पावयणं' शब्द, उसके दो संस्कृत रूपान्तरण हैं- प्रवचन और प्रावचन । आचार्य जिनदास प्रवचन कहते हैं और हरिभद्र प्रावचन । शब्द भेद होते हुए भी, दोनों आचार्य एक ही अर्थ करते हैं- “जिसमें जीवादि पदार्थों का तथा ज्ञानादि रत्नत्रय की साधना का यथार्थ रूप से निरूपण किया गया है, वह सामायिक से लेकर बिन्दुसार पूर्व तक का आगम साहित्य ।” आचार्य जिनदासगणी आवश्यक चूर्णि में लिखते हैं'पावयणं सामाइयादि, बिन्दुसारपज्जवसाणं, जत्थ नाण-दसण-चरित्त-साहणवावारा अणेगया वणिज्जंति।' आचार्य हरिभद्र लिखते हैं-"प्रकर्षेण अभिविधिना उच्यन्ते जीवादयो यस्मिन् तत्प्रावचनम्।" प्रश्न 220. समीक्षा कीजिए-(गुणनिष्पन्न 6 आवश्यक से) 1. आवश्यक आत्मिक स्नान है 2. आवश्यक आत्मिक शल्य क्रिया है 3. आवश्यक मनोवैज्ञानिक चिकित्सा है। उत्तर 1. आवश्यक आत्मिक स्नान है-आवश्यक सूत्र के गुणनिष्पन्न नाम 1. सावद्ययोगविरति 2. उत्कीर्तन 3. गुणवत्प्रतिपत्ति 4. स्खलित निन्दना 5. व्रण-चिकित्सा और 6. गुणधारण हैं। इन नामों के आधार पर आवश्यक आत्मिक स्नान है, की समीक्षा-1. किसी व्यक्ति के द्वारा ऐसा विचार, संकल्प किया जाना कि मैं स्नान करके, पसीने या मैल आदि को दूर करके शारीरिक शुद्धि करूँगा। उसी प्रकार किसी मुमुक्षु आत्म-साधक के द्वारा ऐसा संकल्प किया जाना कि आत्मशुद्धि में प्राणातिपात आदि सावद्य योगों से विरति को ग्रहण करता हूँ। 2. जैसे स्नान करने वाला देखता है कि जिन्होंने स्नान किया है, उन्होंने शारीरिक विशुद्धि को प्राप्तकर लिया है, उनको देखकर वह मन में प्रसन्न होता है और उनकी प्रशंसा भी करता है, उसी तरह आत्मिक स्नान में साधक, पूर्ण समत्व योग को प्राप्त हो चुके अरिहन्त भगवन्तों को देखकर मन में बहुत ही प्रसन्नचित्त होता है और वचनों के द्वारा भी उनके गुणों का उत्कीर्तन करता है। 3. जैसे शारीरिक शुद्धि हेतु जो स्नान करने को उद्यत हुए हैं, उनको देखकर शरीर-शुद्धि को महत्त्व
SR No.034357
Book TitleAavashyak Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimalji Aacharya
PublisherSamyaggyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages292
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy