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________________ { 222 [आवश्यक सूत्र कायोत्सर्ग में तन और मन की एकाग्रता की जाती है और स्थिर वृत्ति का अभ्यास किया जाता है। जब तन और मन स्थिर होता है, तभी प्रत्याख्यान किया जा सकता है। मन डाँवाडोल स्थिति में हो, तब प्रत्याख्यान संभव नहीं है। इसीलिए प्रत्याख्यान आवश्यक' का स्थान छठा रखा गया है। इस प्रकार यह षडावश्यक आत्मनिरीक्षण, आत्मपरीक्षण और आत्मोत्कर्ष का श्रेष्ठतम उपाय है। श्न 203. प्रतिक्रमण के छह आवश्यकों को देव-गुरु-धर्म में विभाजित कीजिये। उत्तर देव का-द्वितीय चतुर्विंशतिस्तव । गुरु का तीसरा वंदना । धर्म का-प्रथम, चतुर्थ, पंचम, षष्ठ (सामायिक, प्रतिक्रमण, कायोत्सर्ग व प्रत्याख्यान ।) प्रश्न 204. वर्तमान चौबीसी के शासनों में प्रतिक्रमण की परम्परा का उल्लेख कीजिये। उत्तर प्रथम एवं अंतिम तीर्थंकर की परम्परा के साधु अतिचार-दोष लगे या न लगे किन्तु दोष-शुद्धि हेतु प्रतिदिन दोनों संध्याओं को प्रतिक्रमण करते हैं किन्तु मध्य के बाईस तीर्थंकरों की परम्परा के साधु-साध्वी दोष लगने पर ही प्रतिक्रमण करते हैं। क्योंकि प्रथम एवं अंतिम तीर्थंकरों के शिष्य चंचल चित्त वाले, मोही, और जड़ बुद्धि वाले होते हैं तथा मध्यवर्ती बाईस तीर्थंकरों के शिष्य दृढ बुद्धि वाले पवित्र, एकाग्र मन वाले तथा शुद्ध चारित्र वाले होते हैं। इस प्रकार प्रथम एवं अंतिम तीर्थंकर के शासन में प्रतिक्रमण अवस्थित (अनिवार्य) कल्प है जबकि बाईस तीर्थंकरों के शासन में यह अनवस्थित (ऐच्छिक) कल्प था। प्रश्न 205. दिन और रात्रि के दोनों प्रतिक्रमण रात्रि में ही क्यों? उत्तर इसके समाधान के निम्न बिन्दु हैं-1. उत्तराध्ययन सूत्र के 26वें अध्ययन में साधु समाचारी का सुन्दर विवेचन किया है। वहाँ गाथा 38-39 में दिन के चौथे प्रहर के चौथे भाग में लगभग (45 मिनट) पूर्व स्वाध्याय को छोड़कर उपकरणों की प्रतिलेखना (मुँहपत्ती, ओघा, पात्र आदि) और उसके पश्चात् उच्चार-प्रस्रवण भूमि के प्रतिलेखन का विधान किया गया है। निशीथसूत्र के चौथे उद्देशक में तीन उच्चार-प्रस्रवण भूमि (जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट- अर्थात् नजदीक, दूर, और दूर) की प्रतिलेखना नहीं करने वाले को प्रायश्चित्त का अधिकारी बताया गया है इस प्रतिलेखना में समय लगना सहज है और उसके पश्चात् प्रतिक्रमण की आज्ञा लेने का विधान है। इससे स्पष्ट हो रहा है कि दिन का प्रतिक्रमण सूर्यास्त होते समय प्रारम्भ करना चाहिए 2. टीकाकारों ने भी सूर्य अस्त के साथ प्रतिक्रमण करने का उल्लेख किया है। 3. उत्तराध्ययन सूत्र के समाचारी अध्ययन में आगे की गाथाओं में प्रतिक्रमण की सामान्य विवेचना की गई है।
SR No.034357
Book TitleAavashyak Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimalji Aacharya
PublisherSamyaggyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages292
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size2 MB
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