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परिशिष्ट-4]
213} को चाहिए कि संयम-साधना में उपयोगी उपकरणों को यतनापूर्वक ग्रहण करे एवं यतना पूर्वक रखे । बिना पूँजे रात्रि में शयन करने से छः काय की विराधना होने की संभावना रहती है। अतः साधक को अपने देह की एवं शय्या संस्तारक आदि की भी प्रतिलेखना कर ही शयन करना चाहिए, नहीं तो उसके अहिंसा महाव्रत में दोष लगता है। (आचारांग 2-3-1 सूत्र 714 से भिक्खू वा बहुफासुए सेज्जासंथारए दुरूहमाणे से पुव्वामेव रासीसोवरियं कायं पाए य पमज्जिय पमज्जित्ता तओ संजयामेव बहुफासए सिज्जासंथारए दुरुहिज्जा दुरुहित्ता तओ संजयामेव बहुफासए सेज्जासंथारए
सएज्जा) 2. बड़ों की अविनय आशातना करना-अतिचार संख्या 34, विणय समिई भावणा।
साधक को अपने गुरुजनों का, साधर्मिक साधु-साध्वियों का विनय करना चाहिए। विनय धर्म का मूल है, विनय तप भी है । दशवैकालिक, उत्तराध्ययन आदि आगमों में विनय को विशेष महत्त्व दिया है। यदि साधक भगवान की आज्ञा की आराधना नहीं करता, तो उसके तीसरे महाव्रत में दोष लगता है। कहा भी है कि तीन वंदना भी यदि अविधि या अविनय से
करे तो तीसरे महाव्रत में दोष लगता है। 3. दीक्षार्थी के जुलूस को देखना-अतिचार संख्या 41-चक्षुइन्द्रिय असंयम । साधक तो
स्वकेन्द्रित होते हैं। संयम पथ पर बढ़ती हुई विरक्त आत्मा को देख अनुमोदना करते हैं। किन्तु जुलूस आदि देखने से मात्र चक्षु-इन्द्रिय का विषय पोषित होता है। परिग्रह, द्रव्य तथा भाव दोनों प्रकार का होता है। उस दृश्य के प्रति लोभ ही खींचकर देखने के स्थान
तक ले जाता है, लोभ से अपिरग्रह महाव्रत में दोष लगना सहज है। 4. ताजमहल देखने जाना-47वाँ अतिचार-देखने जाने में तो ईर्या समिति का अतिचार है,
क्योंकि ईर्या का आलम्बन ज्ञान-दर्शन-चारित्र है-“तत्थ आलम्बणं नाणं दंसणं चरणं तहा" जबकि ताजमहल देखने के निमित्त जाने में एक भी आलम्बन सिद्ध नहीं होता तथा अतिचार संख्या 16 तथा 41 कंखा तथा चक्षुइन्द्रिय असंयम भी लगते हैं । ताजमहल, कुतुबमीनार, हाथी दाँत की मूर्तियाँ, काँच के महल, सरोवर, पर्वत आदि देखना संयमी जीवन के लिए अनुचित कार्य हैं । साधक का जीवन रागप्रधान नहीं, वैराग्यप्रधान होता है। वैराग्यप्रधान जीवन में चक्षु-इन्द्रिय के विषय को पोषित करने वाले दृश्य तुच्छ प्रतीत होते हैं। साधक का लक्ष्य आत्मावलोकन है, बाह्य अवलोकन नहीं। बाहर के दृश्य के प्रति राग संयमी साधक के अपरिग्रह महाव्रत को तो दूषित करते ही हैं साथ में दर्शन में अर्थात्