SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 242
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ { 206 [आवश्यक सूत्र आर्यों! जैसे मैंने श्रमण-निर्ग्रन्थों के लिए तीन प्रकार के दण्डों का निरूपण किया है, जैसेमनोदण्ड, वचनदण्ड और कायदण्ड। इसी प्रकार अर्हत् महापद्म भी श्रमण-निर्ग्रन्थों के लिए तीन प्रकार के दण्डों का निरूपण करेंगे। जैसे-मनोदण्ड, वचनदण्ड और कायदण्ड।। आर्यो! जैसे मैंने श्रमण-निर्ग्रन्थों के लिए चार कषायों का निरूपण किया है, यथा- क्रोधकषाय, मान-कषाय, माया-कषाय और लोभ-कषाय। इसी प्रकार अर्हत् महापद्म भी श्रमणनिर्ग्रन्थों के लिए चार प्रकार के लिए कषायों का निरूपण करेंगे। जैसे- क्रोध-कषाय, मानकषाय, माया-कषाय और लोभ-कषाय। आर्यों ! जैसे मैंने श्रमण-निर्ग्रन्थों के लिए पाँच कामगुणों का निरूपण किया है, जैसे-शब्द, रूप, गन्ध, रस और स्पर्श । इसी प्रकार अर्हत् महापद्म भी श्रमण-निर्ग्रन्थों के लिए पाँच कामगुणों का निरूपण करेंगे। जैसे-शब्द, रूप, गन्ध, रस और स्पर्श। आर्यों ! जैसे मैंने श्रमण-निर्ग्रन्थों के लिए छह जीवनिकायों का निरूपण किया है। यथापृथ्वीकायिक, अप्कायिक, तेजस्कायिक , वायुकायिक, वनस्पतिकायिक और त्रसकायिक। इसी प्रकार अर्हत् महापद्म भी श्रमण-निर्ग्रन्थों के लिए छह जीवनिकायों का निरूपण करेंगे। यथा-पृथ्वीकायिक, अप्कायिक, तेजस्कायिक, वायुकायिक, वनस्पतिकायिक और त्रसकायिक। आर्यों ! जैसे मैंने श्रमण-निर्ग्रन्थों के लिए सात भय स्थानों का निरूपण किया है, जैसेइहलोकभय, परलोकभय, आदानभय, अकस्माद्भय, वेदनाभय, मरणभय और अश्लोकभय। इसी प्रकार अर्हत् महापद्म भी श्रमण-निर्ग्रन्थों के लिए सात भयस्थानों का निरूपण करेंगे। यथाइहलोकभय, परलोकभय, आदानभय, अकस्माद्भय, वेदनाभय, मरणभय और अश्लोकभय। आर्यों ! जैसे मैंने श्रमण-निर्ग्रन्थों के लिए आठ मदस्थानों का, नौ ब्रह्मचर्य गुप्तियों का, दस प्रकार के श्रमण-धर्मों का, ग्यारह उपासक प्रतिमाओं का यावत् तैंतीस आशातनाओं का निरूपण करेंगे। प्रश्न 171. यहाँ ग्यारह उपासक प्रतिमाओं का कथन भी श्रमण-निर्ग्रन्थों के लिए किया गया है, जबकि इन प्रतिमाओं का पालन श्रावक ही कर सकता है, इसे कैसे समझा जाय? उपासक प्रतिमाओं की पालना श्रावक ही करता है किन्तु श्रमण-निर्ग्रन्थों को इन प्रतिमाओं का उपदेश दिया गया है, उसका कारण यह है कि तैंतीस बोलों का सामूहिक तौर से कथन साधुओं के लिए किया गया है। इन तैंतीस बोलों के अन्तर्गत होने से उपासक प्रतिमाओं का कथन भी साधुओं के लिए हो गया है। इसका तात्पर्य यह है कि साधु इन उपासक प्रतिमाओं की श्रद्धाप्ररूपणा शुद्ध रूप से करे। उत्तर
SR No.034357
Book TitleAavashyak Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimalji Aacharya
PublisherSamyaggyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages292
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy