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परिशिष्ट-4]
193} 500 साधु, 50 साधु या 10-20-25 जितने भी हों, उन्हें वन्दना कैसे कर पायेगा ? अतः समुच्चय सभी से क्षमायाचना माँग लेता है। प्रायः संथारा मृत्यु की सन्निकटता में पच्चक्खाया जाता है। अतः उतना समय भी नहीं है, इसलिये सामान्य व्यवस्था यही कर दी गई। सुदर्शन, अर्हन्नक आदि के समक्ष उपसर्ग उपस्थित हैं, अल्पावधि में भी सिद्ध-अरिहन्त को नमस्कार करके यथा शीघ्र पच्चक्खाण करते हैं। तब सभी साधुओं को वंदना कैसे संभव है। वर्तमान में अधिकतर संथारे के पच्चक्खाण में तो व्यक्ति मात्र लेटा-लेटा सुनता रहता है वो नमोत्थुणं या गुरुओं की वंदना भी विधिपूर्वक नहीं कर पाता है। वर्तमान व्यवस्था में तीन वंदना कर लें तो भी
उत्तम है। प्रश्न 146. पाँच पदों की वंदना पंचांग नमाकर घुटने झुकाकर क्यों की जाती है? उत्तर चूँकि यह आसन शरणागति अर्थात अर्पणता का सूचक है। “परमभावे तिष्ठति असौ परमेष्ठी।"
ये हमारे लिए परमाराध्य हैं। इनकी शरण ग्रहण करके ही हम भी परमभाव में प्रतिष्ठित हो सकते
हैं। अतः यह वंदना इसी आसन (मुद्रा) में की जाती है। प्रश्न 147. भाव वन्दना में पहले पद में केवल तीर्थङ्कर भगवन्तों को वन्दना की गई है या केवली
भगवन्तों का भी समावेश किया गया है ? उत्तर
यद्यपि तीर्थङ्कर तथा सामान्य केवली की भिन्नता के अनेक आगम पाठ उपलब्ध होते हैं, किंतु निम्नांकित आधारों से उन्हें एक मानकर प्रथम पद में लिया जाना उचित प्रतीत होता है1. खीणमोहस्स णं अरहओ तओ कम्मंसा जुगवं खवंति, तं जहा-णाणावरणिज्ज.......
ठाणा. 3/4 क्षीणमोह अर्थात् अर्हत् के तीन कर्मांश एक साथ क्षय होते हैं-ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय
और अंतराय। मोहकर्म का क्षय उनके पहले ही हो चुका होता है। यहाँ अर्हत्' शब्द से क्षीणमोह नामक बारहवें गुणस्थान वालों को ग्रहण किया है। क्योंकि वे सभी द्रव्य अर्हत् हैं और शेष तीन घाति-कर्मों का क्षय होते ही तत्काल भाव अर्हत्
होंगे। इस सूत्र से सामान्य केवली भी अर्हत् सिद्ध होते हैं। 2. राजप्रश्नीयसूत्र में राजा प्रदेशी के प्रश्न का उत्तर देते हुए केशी महाराज ने फरमाया-जो पाँच
ज्ञान हैं उनमें से आभिनिबोधिक ज्ञान मुझे है, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान और मनःपर्यव ज्ञान भी मुझे है और जो केवलज्ञान है वह मुझे नहीं है। वह अरिहंत भगवंतों को होता है। (सूत्र 241) इसमें प्रदेशी राजा के भविष्य में दृढ़प्रतिज्ञ कुमार के चरित का वर्णन है, जिसमें उनके