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________________ {184 प्रश्न 121. दया व्रत को कौन-से व्रत में मानना चाहिये ? उत्तर [ आवश्यक सूत्र न्यूनतम चार प्रहर का होता है । अतः वह इन छूटों के बिना सामान्य लोगों को पालन करना कठिन होता है । शरीर का भी अपना एक विज्ञान है। इसका पालन किए बिना पौषध में ज्ञानादि की आराधना में समाधि नहीं रहेगी । उत्तर दो करण तीन योग से सात प्रहर के लिए होने वाले दया व्रत में दिन में अचित्त आहार- पानी सेवन हो सकता है। संवर होने के कारण उसमें 11 सामायिक का लाभ बताया है । सात प्रहर में लगभग 11 सामायिक और करने से वह लाभ 22 सामायिक या अधिक का हो जाता है। चार प्रहर के 10वें पौषध में 25 सामायिक का लाभ मिलता है। उसमें दिन भर उपवास व रात्रिकालीन संवर की साधना रहती है। जबकि दया में सात प्रहर तक संवर की साधना होती है । पर दिन में उपवास नहीं होता है। प्रश्न 122. क्या आगम में ऐसा कोई उल्लेख है जहाँ भगवान महावीर ने गृहस्थ के लिए पौषध का महत्त्व बताया है? हाँ ! श्री स्थानांगसूत्र में भगवान महावीर ने पौषधोपवास व्रत श्रावक के लिए कहे गए चार प्रकार के विश्राम स्थल में से एक बताया है। पौषधोपवास तीसरा विश्रम-स्थल है। वह इस प्रकार का है-अष्टमी, चतुर्दशी, पक्खी आदि पूर्व के दिन, रात्रि - दिवस के लिए पौषधोपवास करना । उत्तर इन दोनों का अंतर ध्यान में रह सके इसलिए पूर्वाचार्यों ने 'दया' संज्ञा से इसे अभिहित किया । इसकी आराधना में व्रत ग्यारहवाँ ही समझा जाता है । प्रश्न 123. पौषध व्रत स्वीकार करने के पश्चात् श्रावक को किन-किन बातों का ध्यान रखना चाहिए? पौषध व्रत स्वीकार करने के पश्चात् श्रावक को आजीविका, खान-पान, शरीर शुश्रूषा एवं गृहकार्य की चिंता से सर्वथा मुक्त हो जाना चाहिए, अधिकाधिक समय आत्मसाधना और धर्मसाधना में लगाना चाहिए। उसे रात्रि का काल धर्म जागरण में बिताना चाहिए। श्रावक को अपना पौषध व्रत अखण्डित रखने के लिए मरणांत कष्ट भी समभावपूर्वक सहन करना चाहिए। प्रश्न 124 अतिथि संविभाग व्रत का क्या स्वरूप है? उत्तर जिनके आने की कोई तिथि या समय नियत नहीं है, ऐसे पंच महाव्रतधारी निर्ग्रन्थ श्रमणों को उनके कल्प के अनुसार चौदह प्रकार की वस्तुएँ निःस्वार्थ भाव से आत्म-कल्याण की भावना से देना तथा दान का संयोग न मिलने पर भी सदा दान देने की भावना रखना, अतिथि संविभाग व्रत है।
SR No.034357
Book TitleAavashyak Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimalji Aacharya
PublisherSamyaggyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages292
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size2 MB
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