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{ xxi} मुझे सिद्धि प्रदान करें। व्यक्ति की जैसी अंतस् की माँग होती है तथानुरूप ही उसका पुरुषार्थ होता है। भावना भवनाशिनी। अत: सिद्धि की उत्तम भावना भायें।
___ 3. वंदन (गुणवत्प्रतिपत्ति)-चतुर्विंशति स्तव के बाद तृतीय वंदन आवश्यक है। प्रत्यक्ष आराधना में आगे बढ़ने वाले सद्गुरुदेव हैं। पूर्णता प्राप्ति में प्रयत्नशील गुरुदेव को देखकर शिष्य भी या श्रमणोपासक भी अपनी साधना में तेजस्विता लाता है। उनकी समत्व की, निर्विकारता की, असंगता की साधना को देखकर, उसकी साधना को भी बल मिलता है। क्योंकि भगवान तो पूर्णता पा चुके। वर्तमान में साधनाशील तो गुरुदेव ही हैं। उन्हें देखकर उसे भी लगता है-मैं भी साधना में आगे बढ़ सकता हूँ। इसीलिए तीसरा आवश्यक गुरु वंदन लिया है। जिनशासन में देव के पश्चात् गुरुदेव का स्थान है। प्रभु तो सर्वोपरि है ही। वैष्णव परंपरा में तो यह भी कहा है
"गुरु गोविंद दोनों खड़े काके लागूं पाय।
बलिहारी गुरुदेव ने गोविंद दियो बताय।" शिष्य को प्रभु का परिचय कराने वाले गुरु ही है। गुरु के बिना उसे कौन साधना का मार्ग बताता? इस अपेक्षा से गुरु की अध्यात्म जगत में अत्यन्त महत्ता है। कहा है
“गुरु को सिर पर राखिये, चलिए आज्ञा माहि।
कहे कबीर दास को, तीन लोक में भय नाहिं।।" गुर्वाज्ञा को अग्रणी रखकर आराधना करने वाला आराधक बन जाता है, मुक्ति प्राप्त कर लेता है। उत्तराध्ययन सूत्र के 29वें अध्ययन के 10वें बोल में वंदन का फल बताते हुए कहा है-नीच गौत्र का क्षय, उच्च गौत्र का बंध, सौभाग्य की प्राप्ति, अप्रतिहत आज्ञा का फल और दाक्षिण्य भाव (लोकप्रियता) की प्राप्ति। विनय जिन शासन का मूल है। विनय धर्म का मूल है। विनय समस्त गुणों का सम्राट् है। विनय अनेकानेक गुणों को अपनी ओर आकृष्ट करता है। विनयवान का हृदय कोमल होता है, उसे झुकाने में नहीं झुकने में आनन्द का अनुभव होता है। गुरु चरणों में झुककर वह अपने आपको, सौभाग्यशाली समझता है। गुरु के चरण कमल, कर्म मल को धोकर, आत्मा को विशुद्ध बनाने वाले हैं। इच्छामि खमासमणो और तिक्खत्तो ये गुरु वंदन के मुख्य पाठ हैं। कभी रास्ते चलते गुरुदेव मिले, उनके हाथ में गोचरी पानी आदि का वजन हो तो उस समय विनय में विवेक रखते हुए, चरण स्पर्श न करते हुए दूर से ही सिर झुकाकर “मत्थएणं वंदामि” बोलकर जघन्य वंदन करना चाहिए। तिक्खुत्तो के पाठ में बायें से दायें (Left to Right)आवर्तन देते हुए पंचांग झुकाकर विधि सहित वंदन करना चाहिए। यह मध्यम वंदना है। इस विधि में सद्भावों का सम्मिलित होना भी परमावश्यक है। श्री कृष्ण वासुदेव ने वंदन से सातवीं, छठी, पाँचवीं और चौथी नरक के