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________________ परिशिष्ट-3] 157} स्थान पर गोबरादि से लीपना, संमार्जन करना, सुगन्धि जल छिड़कना, धूप देना, पुष्प चढ़ाना, गंध देना, सुगन्ध माल्य पहिनाना इत्यादि द्रव्यावश्यक करते हैं । इति कुप्रावचनिक ज्ञ शरीर द्रव्यावश्यक । (स) लोकोत्तर ज्ञ शरीर = ‘जे इमे समणगुणमुक्कजोगी, छक्कायणिरणुकंपा, हया इव उद्दामा, गया इव णिरंकुसा, छट्ठा, मट्ठा, तुपोट्ठा, पंडरपडपाउरणा, जिणाण मणाणाए सच्छंद विहरिऊण उभओ कालं आवस्सयस्स उवट्ठति । से तं लोगुत्तरियं दव्वावस्सयं' = जो ये साधु के 27 गुणों तथा शुभयोगों से रहित हैं । षट्काय की अनुकम्पा से रहित हैं, बिना लगाम के घोड़े की तरह उतावले चलने वाले हैं, अंकुश रहित हस्तिवत् मदोन्मत्त हैं, फेनादि किसी द्रव्य से सुहाली करने के लिए जंघाओं को घिसने वाले हैं, तेल जल्ल आदि से शरीर के केशों की रक्षादि के लिए मदन (मेण) से होठों को वेष्टित रखने वाले हैं, धोए हुए सफेद वस्त्रों को पहिनने वाले हैं, तीर्थङ्करों की आज्ञा से बाहर हैं, स्वच्छन्द मति से विचरते हुए जो दोनों वक्त आवश्यक करते हैं। लोकोत्तर तद्व्यतिरिक्त नोआगमत: से द्रव्यावश्यक । इति द्रव्यावश्यक सम्पूर्ण। भावावश्यक-इसके दो भेद (1) आगम से (2) नो आगम से भावावश्यक । (1) आगम से भावावश्यक-जिसने आवश्यक इस सूत्र के अर्थ का ज्ञान किया है और उपयोग सहित है। उसको आगम से भावावश्यक कहते है। (2) नोआगम से भावावश्यक-इसके तीन भेद (1) लौकिक नो आगम से भावावश्यक-जो लोग पूर्वार्ध (प्रभात-समय) में उपयोग सहित रामायण को बांचे तथा श्रवण करे। (2) कुप्रावचनिकनोआगम से भावावश्यक-जो ये पूर्वोक्त चरक, चीरिक यावत् पाखंड मार्ग में चलने वाले यथावसर 'रज्जंजलिहोमजपोन्द-रुक्कणमोक्कण ....... क्कारमाइयाइ भावावस्सयाई करेंति से तं कुप्पावणियं भावावश्ययं ।' ...... "जलांजलि को देना या सन्ध्यार्चन समय जलांजलि को देना या देवी के सम्मुख हाथ जोड़ना, अग्नि हवन करना, मंत्रादि का जप करना देवतादि के सम्मुख वृषभवत् शब्द करना ‘नमो भगवते दिवसनाथाय' इत्यादि नमस्कार का करना आदि, ये पूर्वोक्त कृत्य जो भाव से उपयोग सहित करे। (3) लोकोत्तर नोआगम से भावावश्यक-'जण्णं इमे समणे वा समणी वा, सावओवा, साविओ वा तचित्ते, तम्मणे, तल्लेसे, तदज्झवसिए, तत्तिव्वज्झ-वसाणे, तदट्ठोवओ, तप्पियकरणे, तब्भावणाभाविए, अण्णत्थ कत्थइ मणं अकरेमाणे उभाओकालं आवस्सयं करेंति, से तं लोगुत्तरिअंभावावस्सयं । जो ये शान्त स्वभाव रखने वाले साधु-साध्वी, साधु के समीप जिन प्रणीत समाचारी को सुनने वाले श्रावक, श्राविका उसी आवश्यक में सामान्य प्रकार से उपयोग सहित चित्त को रखने वाले, उसी आवश्यक में शुभ परिणाम रूप लेश्या वाले, तच्चित्तादि भाव युक्त उसी आवश्यक की विधि पूर्वक क्रिया करने के अध्यवसाय वाले। उसी आवश्यक में प्रारम्भकाल से लेकर प्रतिक्षण चढ़ते-चढ़ते प्रयत्न विशेष के अध्यवसाय रखने वाले । उसी आवश्यक के अर्थ के विषय में उपयोग सहित (तीव्रतर वैराग्य को रखने वाले) उसी आवश्यक में सब इन्द्रियों को लगाने वाले, उसी आवश्यक के विषय में अव्यवच्छिन्न उपयोग सहित अनुष्ठान
SR No.034357
Book TitleAavashyak Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimalji Aacharya
PublisherSamyaggyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages292
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size2 MB
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