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________________ { 148 [आवश्यक सूत्र दुप्पमज्जिय- = प्रमार्जन न किया हो या अच्छी तरह से न, सेज्जासंथारए = किया हो । अप्पडिलेहियदुप्पडिलेहिय- = उच्चार पासवण की भूमि को न देखी हो, उच्चार-पासवण-भूमि = या अच्छी तरह से न देखी हो। अप्पमज्जिय-दुप्पमज्जिय- = पूँजी न हो या अच्छी तरह से न पूँजी हो । उच्चारपासवण-भूमि पोसहस्स सम्मं अणणुपालणया = उपवास युक्त पौषध का सम्यक् प्रकार से पालन न किया हो।।11।। भावार्थ-मैं प्रतिपूर्ण पौषधव्रत के विषय में एक दिन एवं रात के लिए अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य इन चारों प्रकार के आहार का त्याग करता हूँ। अब्रह्मचर्य सेवन का, अमुक मणि-सुवर्ण आदि के आभूषण पहनने का, फूलमाला पहनने का चूर्ण और चंदनादि के लेप करने का, तलवार आदि शस्त्र और हल, मूसल आदि औजारों के प्रयोग संबंधी जितने सावध व्यापार हैं, उन सबका त्याग करता हूँ। यावत् एक दिन-रात पौषधव्रत का पालन करता हुआ मैं उक्त पाप क्रियाओं को मन, वचन, काया से नहीं करूँगा और न अन्य से करावाऊँगा, ऐसी मेरी श्रद्धा-प्ररूपणा तो है किंतु पौषध का समय आने पर जब उसका पालन करूँगा तब शुद्ध होऊँगा। पौषधव्रत के समय शय्या के लिए जो कुश, कम्बल आदि आसन हैं उनका मैंने प्रतिलेखन और प्रमार्जन न किया हो, मल-मूत्र त्याग करने की भूमि का प्रतिलेखन और प्रमार्जन न किया हो अथवा अच्छी तरह से न किया हो तथा सम्यक् प्रकार आगमोक्त मर्यादा के अनुसार पौषध का पालन न किया हो तो मैं उसकी आलोचना करता हूँ और चाहता हूँ कि मेरा सब पाप निष्फल हो। 12. बारहवाँ अतिथि संविभाग व्रत-समणे निग्गंथे फासुयएसणिज्जेणं, असण-पाण-खाइमसाइम-वत्थ-पडिग्गह-कंबल-पायपुंछणेणं, पडिहारिय-पीढ-फलग-सेज्जासंथारएणं, ओसह-भेसज्जेणं, पडिलाभेमाणे विहरामि, ऐसी मेरी सद्दहणा प्ररूपणा तो है, साधु-साध्वियों का योग मिलने पर निर्दोष दान दूं, तब फरसना करके शुद्ध होऊँ एवं बारहवें अतिथि संविभाग व्रत के पंच-अइयारा जाणियव्वा, न समायरियव्वा तं जहा ते आलोउं-सचित्त-निक्खेवणया, सचित्त-पिहणया, कालाइक्कमे, परववएसे, मच्छरियाए, जो मे देवसिओ अइयारो कओ तस्स मिच्छा मि दुक्कडं ।। ___ अन्वयार्थ-अतिथि संविभाग = जिसके आने की कोई तिथि या समय नियत नहीं है ऐसे अतिथि साधु को अपने लिए तैयार किये भोजन आदि में से कुछ हिस्सा देना । समणे = श्रमण साधु । निग्गंथे = निर्ग्रन्थ पंच महाव्रत धारी को। फासुयएसणिज्जेणं = प्रासुक (अचित्त) ऐषणिक (उद्गम आदि दोष रहित) । असण-पाण-खाइम-साइम- = असन, पान, खादिम, स्वादिम । वत्थ-पडिग्गह-कम्बल= वस्त्र, पात्र, कंबल । पायपुंछणेणं = पादपोंछन (पाँव पोंछने का रजोहरण आदि) । पाडिहारिय-पीढफलग- = वापिस लौटा देने योग्य । सेज्जासंथारएणं = (जिस वस्तु को साधु कुछ काल तक रखकर बाद में वापिस लौटा देते हैं)। चौकी, पट्टा, शय्या के लिए संस्तारक तृण आदि का आसन । ओसह-भेसज्जेणं
SR No.034357
Book TitleAavashyak Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimalji Aacharya
PublisherSamyaggyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages292
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size2 MB
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