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________________ [ आवश्यक सूत्र 6. दंतवाणिज्य - हाथी के दांत, चमरी गाय के बाल, उलूक आदि के नाखून, शंख आदि की अस्थि, शेर चीता आदि के चर्म और हंस आदि के रोम और अन्य त्रस जीवों के अंगों को उनके उत्पत्ति स्थान में जाकर लेना या पेशगी द्रव्य देकर खरीदना 'दंतवाणिज्य' कहलाता है। {144 7. लाक्षावाणिज्य-लाख, मेनसिल, नील, धातकी के फूल, छाल आदि टंकण -खार आदि पाप के कारण हैं, अतः उनका व्यापार भी पाप का कारण है। यह 'लाक्षावाणिज्य' कर्मादान कहलाता है। 8-9. रस-केश वाणिज्य- मक्खन, चर्बी, मधु और मद्य आदि बेचना 'रसवाणिज्य' कहलाता है। कतिपय आचार्य घी, दूध, दही, शक्कर, गुड़ आदि के व्यापार को भी रसवाणिज्जे में शामिल करते हैं। और द्विपद में दास - नौकर आदि एवं चतुष्पद अर्थात् पशु-पक्षी आदि का विक्रय करने का धंधा करना ‘केशवाणिज्य कहलाता है। 10. विषवाणिज्य - विष, शस्त्र, हल, यंत्र, लोहा और हरताल आदि प्राणघातक वस्तुओं का व्यापार करना 'विषवाणिज्य' कहलाता है। 11. यंत्रपीड़नकर्म-तिल, ईख, सरसों और एरंड आदि को पीलने का तथा रहट आदि चलाने का धंधा करना, तिलादि देकर तेल लेने का धंधा करना और इस प्रकार के यंत्रों को बनाकर आजीविका चलना 'यंत्रपीड़नकर्म' कहलाता है। 12. निलछनकर्म - जानवरों के नाक बींधना - नत्थी करना, आंकना - डाम लगाना, • आंकना डाम लगाना, बधिया-खस्सी करना, ऊँट आदि की पीठ गालना और कान का तथा गल-कंबल का छेदन करना 'निलछनकर्म' कहा गया है। 13-14. दवदाव तथा सरशोषणकर्म' - आदत के वश होकर या पुण्य समझकर दव-जंगल में आग लगाना 'दव दाव' कहलाता है और तालाब, नदी, द्रह आदि को सुखा देना 'सरशोषणकर्म' है। 15. असतीपोषणकर्म'- मैना, तोता, बिल्ली, कुत्ता, मुर्गा एवं मयूर को पालना, दासी का पोषण करना, किसी को दास दासी बनाकर रखना और पैसा कमाने के लिए दुश्शील स्त्रियों को रखना असती पोषणकर्म' कहलाता है। - " 8. आठवाँ अणट्ठादण्ड - विरमण व्रत चउव्विहे अणट्टादंडे पण्णत्ते तं जहा अवज्झाणायरिये, पमायावरिये, हिंसप्पयाणे, पावकम्मोवएसे एवं आठवाँ अण्डादण्ड सेवन का पच्चक्खाण, जिसमें आठ आगार आए वा, राए बा, नाए वा परिवारे वा, देवे वा, नागे वा, जक्खे वा, भूए वा, एत्तिएहिं आगारेहिं अण्णत्थ जावज्जीवाए दुविहं तिविहेणं न करेमि, न कारवेमि, मणसा, वयसा, कायसा एवं आठवाँ अण्डादण्ड विरमण व्रत के पंच अइयारा जाणियव्वा न समायरियव्वा तं जहा ते आलोउं कंदप्पे, कुक्कुइए, मोहरिए, संजुत्ताहिगरणे, उवभोगपरिभोगाइरित्ते, जो मे देवसिओ अइयारो कओ तस्स मिच्छा मि दुक्कडं । - 1. योगशास्त्र में क्रम व नाम में कुछ अंतर है। -
SR No.034357
Book TitleAavashyak Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimalji Aacharya
PublisherSamyaggyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages292
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size2 MB
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