SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 164
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ { 128 [आवश्यक सूत्र इन्द्रिय प्रत्यक्ष कहलाता है। निष्कर्ष यह हुआ कि निश्चय में तो अवधिज्ञान, मन:पर्यवज्ञान और केवल ज्ञान ही प्रत्यक्ष है । व्यवहार में मन तथा इन्द्रियों की सहायता से होने वाला ज्ञान भी प्रत्यक्ष कहलाता है। (2) अनुमान-हेतु को देखकर व्याप्ति का स्मरण करने के पश्चात् जिससे पदार्थ का ज्ञान होता है। उसे अनुमान प्रमाण कहते हैं । जैसे दूर से किसी जगह पर उठते हुए धुएँ को देखकर यह ज्ञान करना कि यहाँ पर अग्नि है क्योंकि जहाँ-जहाँ धुंआ होता है वहाँ-वहाँ अग्नि अवश्य होती है। जैसा कि रसोई घर में देखा था कि वहाँ धुआँ था तो अग्नि भी थी। (3) उपमान-जिसके द्वारा सदृशता (समानता) से उपमेय (उपमा देने योग्य पदार्थों का ज्ञान होता है) उसे उपमान प्रमाण कहते हैं। जैसे गवय (रोझड़ा)-एक जंगली जानवर-गाय के सामन होता है। (4) आगम-आगम शब्द का अर्थ इस प्रकार किया गया है-'गुरुपारम्पर्येणागच्छति इति आगमः।' जो ज्ञान गुरु परम्परा से प्राप्त होता रहता है उसे आगम कहते हैं (आगम शब्द की व्युत्पत्ति इस प्रकार की गयी है) आ-समन्ताद् गम्यन्ते-ज्ञायन्ते जीवादय पदार्था अनेनेति आगमः । सर्वे गत्यर्था ज्ञानार्थाः । गति (चलना) अर्थ में जितनी धातुएँ आती हैं उन सबका ज्ञान अर्थ भी हो जाता है। इसलिए आगम शब्द का यह अर्थ हुआ कि जिससे जीवादि पदार्थ का ज्ञान प्राप्त हो उसे आगम कहते हैं। न्याय ग्रन्थ में कहा है कि-जीव पदार्थों का जैसा स्वरूप है वैसा जाने और जैसा जानता है वैसा ही कथन (प्ररुपणा) करता है उसे आप्त कहते हैं। केवल ज्ञानी को परमोत्कृष्ट आप्त कहते हैं। उनके वचनों से प्रकट करने वाले प्रवचन को आगम कहते हैं। साधु-पद-भाव-वन्दना पाँचवें पद 'नमो लोए सव्व साहूणं' अढ़ाई द्वीप पन्द्रह क्षेत्र रूप लोक में स्वयं के पोताना (धर्माचार्य जी एवं बड़े सन्तों के नाम लेवें आदि) सर्व साधुजी महाराज जघन्य दो हजार क्रोड़, उत्कृष्ट नव हजार क्रोड़ जयवन्ता विचरें । पाँच महाव्रत पाले, पाँच इन्द्रिय जीते, चार कषाय टाले, भाव सच्चे, करण सच्चे, जोग सच्चे, क्षमावंत, वैराग्यवंत, मन समाधारणया, वय समाधारणया, काय समाधारणया, नाण सम्पन्ना, दंसण सम्पन्ना, चारित्त सम्पन्ना, वेदनीय समाअहियासन्निया, मारणंतिय समाअहियासन्निया ऐसे सत्ताईस गुण करके सहित हैं। पाँच आचार पाले, छहकाय की रक्षा करे, सात भय त्यागे, आठ मद छोड़े, नववाड़ सहित शुद्ध ब्रह्मचर्य पाले, दस प्रकारे यति धर्म धारे, बारह भेदे तपस्या करे, सतरह भेदे संयम पाले, अठारह पापों को त्यागे, बाईस परीषह जीते, तीस महामोहनीय कर्म निवारे, तेतीस आशातना टाले, बयालीस दोष टाल कर आहार-पानी लेवे, सैंतालीस दोष टाल कर भोगे, बावन अनाचार टाले, तेड़िया (बुलाये) आवे नहीं, नेतीया जीमे नहीं, सचित्त के त्यागी, अचित्त के भोगी, लोच करे, नंगे पैर चले इत्यादि काय क्लेश और मोह ममता रहित हैं।
SR No.034357
Book TitleAavashyak Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimalji Aacharya
PublisherSamyaggyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages292
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy