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________________ {100 [ आवश्यक सूत्र होते क्योंकि वह तो निमित्त मात्र है। उपादान तो आत्मा के उपार्जित किए हुए कर्म हैं। इसलिए वे अपने किए हुए कर्मों को क्षय करने का पुरुषार्थ करते हैं। पुरिसवरपुंडरीयाणं-मानस सरोवर में सर्वश्रेष्ठ कमल । आध्यात्मिक जीवन की अनन्त सुगन्ध फैलाने वाले कमल के समान अलिप्त । पुरीसवरगंधहत्थीणं हस्ती सिंह की उपमा वीरता की सूचक है, गन्ध की नहीं और पुंडरीक की उपमा गन्ध की सूचक है वीरता की नहीं । परन्तु गंधहस्ती की उपमा सुगन्ध और वीरता की सूचना देती है । गन्ध हस्ती के गण्डस्थल (मस्तक) से एक प्रकार का मद झरता रहता है। उसकी गंध से सामने वाले दूसरे हाथी मद रहित हो जाते हैं अर्थात् वे प्रभावहीन हो जाते हैं। इसी प्रकार तीर्थकर भगवान के सामने अन्य मतावलम्बी परवादी मद रहित (निरुत्तर) हो जाते हैं । गन्ध हस्ती में ऐसी वीरता होती है कि दूसरे हाथी उसे जीत नहीं सकते हैं। इसी प्रकार तीर्थङ्कर भगवान में ऐसी अनन्त शक्ति होती है कि कोई भी परवादी उन्हें जीत नहीं सकता है। - 1 लोगपवाणं साधारण पुरुषों के लिए दीपक के समान प्रकाश करने वाले लोगपज्जो अगराणंगणधरादि विशिष्ट ज्ञानी पुरुषों के लिए सूर्य के समान प्रकाश करने वाले। विअट्टछउमाणं- व्यावृत्त छद्य छद्म के दो अर्थ है- आवरण और छल 'छादयतीति छद्य' अर्थात् ज्ञानावरणीय आदि चार घातिकर्म आत्मा की ज्ञान, दर्शन आदि मूल शक्तियों को आच्छादित किये (ढँके) हुए रहते हैं अत: वे छद्म कहलाते हैं। जो इस छद्म से पूर्णतया अलग हो गये वे केवलज्ञानी व्यावृत्त छद्म कहलाते हैं । दूसरे अर्थ से छल और प्रमाद से रहित हो, वे व्यावृत्त छद्म कहलाते हैं। इस पाठ को 'शक्रस्तव' भी कहते हैं । किन्हीं-किन्हीं प्रतियों में 'दीवताणसरणगइपइट्ठाणं' तथा किन्हीं में 'दीवो ताणं सरणं गइ पइट्ठा' पाठ भी मिलता है। ललित विस्तरा नामक हरिभद्रसूरि द्वारा रचित ग्रन्थ में यह शब्द ही नहीं है। इस शब्द को किसने व कब जोड़ा इस सम्बन्ध में कुछ नहीं कहा जा सकता। मूल इच्छामि णं भंते का पाठ इच्छामि णं भंते! तुब्भेहिं अब्भणुण्णाए समाणे देवसियं' पडिक्कमणं ठाएमि देवसिय' - नाण- दंसण - चरित्त - तव - अइयार - चिंतणत्थं करेमि काउस्सग्गं । 1-2.देवसियं-देवसिय के स्थान पर रात्रि प्रतिक्रमण में 'राइयं-राइय', पाक्षिक प्रतिक्रमण में 'पक्खियं पक्खिय', चातुर्मासिक में 'चाउम्मासियंचाउम्मासिय', और सांवत्सरिक प्रतिक्रमण में 'संवच्छरियं संवच्छरिय' बोलना चाहिए।
SR No.034357
Book TitleAavashyak Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimalji Aacharya
PublisherSamyaggyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages292
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size2 MB
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