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________________ पंचम अध्ययन कायोत्सर्ग कायोत्सर्ग में दो शब्द हैं-काय और उत्सर्ग । जिसका अर्थ है-काय का त्याग अर्थात् शरीर के ममत्व को त्याग करना कायोत्सर्ग है। प्रतिक्रमण अध्ययन के बाद कायोत्सर्ग का स्थान है। प्रतिक्रमण के द्वारा व्रतों के अतिचार रूप छिद्रों को बंदकर देने वाला, पश्चात्ताप के द्वारा पाप कर्मों की निवृत्ति करने वाला साधक ही कायोत्सर्ग की योग्यता प्राप्त कर सकता है। जब तक प्रतिक्रमण के द्वारा पापों की आलोचना करके चित्त शुद्धि न की जाय तब तक धर्मध्यान या शुक्लध्यान के लिए एकाग्रता संपादन करने का जो कायोत्सर्ग का उद्देश्य है वह किसी भी तरह सिद्ध नहीं हो सकता । अनाभोग आदि से लगने वाले अतिचारों की अपेक्षा अविवेक, असावधानी आदि से लगे बड़े अतिचारों की कायोत्सर्ग शुद्धि करता है। इसीलिये कायोत्सर्ग को पाँचवाँ स्थान दिया गया है। कायोत्सर्ग एक प्रकार का प्रायश्चित्त है । वह पुराने पापों को धोकर साफ कर देता है । तस्सउत्तरी के पाठ (उत्तरीकरण का पाठ) में यही कहा है कि पाप युक्त आत्मा को श्रेष्ठ-उत्कृष्ट बनाने के लिए, प्रायश्चित्त करने के लिए, विशेष शुद्धि करने के लिए, शल्यों का त्याग करने के लिए, पाप कर्मों का नाश करने के लिए कायोत्सर्ग - शरीर के व्यापारों का त्याग किया जाता है। अनुयोगद्वार सूत्र में कायोत्सर्ग आवश्यक का नाम 'व्रण चिकित्सा' कहा है। व्रत रूप शरीर में अतिचार रूप व्रण (घाव, फोड़े) के लिए पाँचवाँ आवश्यक (अध्ययन) चिकित्सा रूप पुल्टिस (मरहम) का काम करता है। जैसे पुल्टिस, फोड़े के बिगड़े हुए रक्त को मवाद बनाकर निकाल देता है और फोड़े की पीड़ा को शांत कर देता है उसी प्रकार यह काउसग्ग रूप पाँचवाँ आवश्यक व्रत में लगे हुए अतिचारों के दोषों को दूरकर आत्मा को निर्मल एवं शांत बना देता है। उत्तराध्ययन सूत्र के 29वें अध्ययन में कायोत्सर्ग का फल इस प्रकार कहा है-काउस्सग्गेणं भंते! जीवे किं जणय? अर्थात् हे भगवन्! कायोत्सर्ग करने से जीव को किन गुणों की प्राप्ति होती है? इसके उत्तर में प्रभु फरमाते हैं कि
SR No.034357
Book TitleAavashyak Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimalji Aacharya
PublisherSamyaggyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages292
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size2 MB
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