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________________ 77} चतुर्थ अध्ययन - प्रतिक्रमण] मुत्तिमग्गं-'निर्मुक्तता अर्थात् निःसंगता । अहितार्थ कर्म विच्युतिः' अर्थात् कर्मों से सर्वथा छूट जाना। निज्जाणमग्गं-'निरूपमं यानं निर्याणं' ईषत्प्राग्भाराद्रव्यं मोक्षपदमित्यर्थः' अर्थात् जहाँ जाया जाता है वह यान होता है। निरूपम निर्याण कहलाता है। मोक्ष ही ऐसा पद है जो सर्वश्रेष्ठ यान स्थान है। निर्याणं-संसारात्पलायनम-संसार से पलायन का मार्ग सम्यग्दर्शनादि धर्म ही अनन्तकाल से भटकते हए भव्य जीवों को संसार से बाहर निकालता है। अत: संसार से बाहर निकालने का मार्ग होने से सम्यग्दर्शनादि धर्म निर्याण मार्ग कहलाता है। निव्वाणमग्गं-'निवृत्ति निर्वाणम्-सकल कर्मक्षयजमात्यन्तिकं सुखमित्यर्थः' अथवा 'निव्वाणं निव्वत्ती आत्म-स्वास्थ्यमित्यर्थः' अर्थात् आत्मस्वास्थ्य निर्वाण है। कर्म रोग से मुक्त होकर अपने स्वरूप में स्थित होता है वह स्वस्थ कहलाता है। इस आत्मिक स्वास्थ्य को ही निर्वाण कहते हैं। बौद्ध दर्शन निर्वाण को अभाववाचक मानता है । उस दर्शन में निर्वाण का अर्थ बुझना-नष्ट होना है, अर्थात् आत्मा की सत्ता सदा-सदा के लिए नष्ट हो जाना किन्तु ऐसा निर्वाण जैन सिद्धान्त में नहीं कहा गया है। सव्वदुक्खपहीण मग्गं-इच्छाओं का होना ही दुःख है इच्छाओं का अभाव ही सुख है और सुख मोक्ष में ही हो सकता है अर्थात् सब दुःखों के नष्ट होने का मार्ग। सिझंति-'सिद्धा भवन्ति, परिनिष्ठितार्था भवन्ति ।' सिद्ध हो जाते हैं अत: कृतकृत्य हो जाते हैं। आत्मा के अनंत गुणों का पूर्ण विकास हो जाना ही सिद्धत्व है। बुझंति-वैशेषिक दर्शन (महर्षि कणाद्) की यह मान्यता है कि मुक्त में आत्मा जड़वत् (निष्क्रिय) हो जाती है, इसी को उन्होंने मोक्ष कहा है। वैशेषिक दर्शनानुसार मोक्ष होने पर आत्मा में न ज्ञान रहता है, न सुख रहता है। ‘आत्मविशेष गुणानामुच्छेदो मोक्षः' उपर्युक्त मान्यता का खण्डन इस शब्द में होता है। क्योंकि मोक्ष अवस्था में भी आत्मा केवल ज्ञान, केवलदर्शन से युक्त रहती है। बुद्ध का अर्थ होता है-पूर्ण ज्ञानी। मुच्चन्ति-जब तक एक भी कर्म परमाणु आत्मा से संबंधित रहता है तब तक मोक्ष नहीं हो सकता। सब कर्मों का क्षय होने पर ही सिद्धत्व भाव प्राप्त होता हैं, मोक्ष होता है। सिद्धत्व का अर्थ ही मुक्तत्व-कर्मों से मुक्त होना है। किन्तु कुछ दर्शन मोक्ष का अर्थ पूर्ण मुक्त नहीं मानकर कृतकर्मों के फल को भोगना मुक्ति कहते हैं । जब तक शुभ कर्मों का सुख रूप फल का भोग पूर्ण नहीं होता तब तक आत्मा मोक्ष में रहता है और ज्यों ही फल भोग पूर्ण होता है त्यों ही फिर संसार में लौट आता है । जैन दर्शन इसे मोक्ष नहीं मानकर, स्वर्ग का स्वरूप मानता है। जैन दर्शन के अनुसार कृत्स्नकर्मक्षयो मोक्षः' अर्थात् सम्पूर्ण कर्मों का क्षय ही मोक्ष अत: ‘मुच्चन्ति' शब्द का यह अर्थ है।
SR No.034357
Book TitleAavashyak Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimalji Aacharya
PublisherSamyaggyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages292
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size2 MB
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