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आधार से उछल-कूद करती है। ज्ञान के आधार से उसे सहज में लाना है। यदि गाडी लेट है तो वह व्यवस्थित है। जितना आज्ञा में रहा उतना खुद का दखल चला गया, इसलिए प्रकृति सहज होती जाती है अर्थात् ज्ञाता-दृष्टा रह सकते हैं।
उसके बाद फाइल नं-2 या दूसरी अन्य फाइलों के साथ झगड़े हुए हों या झंझट हुई हो तो उनका भी समभाव से निकाल कर देते हैं लेकिन फाइल नं-1 का समभाव से निकाल करना बाकी रहा है। अहंकार से उसे असहज कर दिया है। किसी सभा में बैठा हो और यदि पेशाब करने जाना हो तो दो घंटे तक नहीं जाता, होटल में खाने बैठा हो और खाना स्वादिष्ट हो तो ज़्यादा खा लेता है, सोने का टाइम हो गया हो और कोई अच्छी किताब मिल गई तो पढ़ता ही रहता है, नाटक देखने गया हो और देह को नींद आती हो तो भी ज़बरदस्ती जागकर देखता है, नींद को अब्स्ट्रैक्ट करता (रोकता) है। देह को अनियमित कर रखा है इसलिए असहज हो गया है। अब, इस फाइल नं-1 का समभाव से निकाल (निपटारा) करके वापस उसे सहज करना है।
आज्ञा पालन का फ्लाई व्हील 181 डिग्री तक घूमने के बाद वह अपने आप खुद के बल से ही घूमता रहेगा, तब तक ही ज़ोर लगाना है। उसके बाद बोझ हल्का होता जाएगा, सहज होता जाएगा।
ये पाँच आज्ञा पूरे वर्ल्ड के सभी शास्त्रों का अर्क है। पाँच आज्ञा का पालन करने को ही पुरुषार्थ कहते हैं। सही पुरुषार्थ क्या है? तब कहते हैं ज्ञाता-दृष्टा रहना, वह। पहले आज्ञा रूपी पुरुषार्थ, उसके बाद उसमें से स्वाभाविक पुरुषार्थ उत्पन्न होता है इसलिए खुद सहज स्वभाव में बगैर आज्ञा के रह सकता है, सहज समाधि निरंतर रहती है।
[5] त्रिकरण इस तरह से होता जाता है सहज
साहजिक अर्थात् मन-वचन-काया की जो क्रिया हो रही है, उसमें दखल नहीं करना। मन के धर्म में या किसी और में दखल नहीं करे। मन-वचन-काया काम करते रहे, उनका निरीक्षण करते रहना।
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