SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 485
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 420 ज्ञानी पुरुष (भाग-1) प्रश्नकर्ता : जिसे अन्डरहैन्ड का शौक नहीं है उन्हें। दादाश्री : मुझे अन्डरहैन्ड का शौक नहीं है। मेरे अन्डर में कोई नहीं है। मुझे आपको अन्डरहैन्ड नहीं बनाना है और ऊपरी की तरह भी स्वीकार नहीं करना है। मैं ऊपरी को स्वीकार नहीं करता हूँ। ऊपरी क्यों होना चाहिए? अतः ऊपरीपने को स्वीकार नहीं किया था। शुरू से ही ऐसी आदत थी कि मुझे अपने सिर पर कोई नहीं चाहिए इसलिए भगवान को भी कभी मैंने बॉस के रूप में स्वीकार नहीं किया। मुझे अपने अंदर वाले भगवान के साथ अभेद होना है मुझे वीतरागों का ऐसा मोक्ष मार्ग चाहिए था जहाँ कोई ऊपरी नहीं, अन्डरहैन्ड नहीं। उन दिनों ऐसा पता नहीं चला कि वीतरागों का मोक्ष ऐसा है लेकिन मुझे वहीं से समझ में आ गया था कि ऊपरी नहीं चाहिए। जो कहे कि 'उठ यहाँ से', ऐसा तेरा मोक्ष मुझे नहीं चाहिए। यदि वह मोक्ष में ले जा रहा हो तो भी मैं मना करूँगा कि 'अपने घर चला जा यहाँ से। तेरी लक्ष्मी जी के साथ बैठा रह अपने घर। मुझे तो, मुझ में भी जो भगवान हैं उन भगवान के साथ जाना है। मुझे तुझसे क्या काम है ? तू भगवान है, मैं भी भगवान हूँ। चाहे तू मुझे कुछ समय के लिए अपने काबू में रखने का प्रयत्न कर रहा है लेकिन आई डोन्ट वान्ट टू'। पर यह भीख क्यों? इन पाँच इन्द्रियों के लालच के लिए? क्या लालच है इसमें? जानवर को भी लालच है और इन्हें भी लालच है तो फिर उसमें और हम में फर्क क्या रहा? विद्रोही और निःस्पही स्वभाव की वजह से साफ-साफ कह देता था प्रश्नकर्ता : सही बात है लालच के कारण वास्तविक भगवान की पहचान नहीं हो पाती। दादाश्री : मैं जब छोटा था तब एक बाप जी ऐसा कह रहे थे, कि 'मैंने इनका बहुत बड़ा रोग ले लिया और इनका जो शारीरिक दुःख था वह सारा ले लिया'। मेरे दिमाग़ में यह बात नहीं बैठी। विद्रोही दिमाग़
SR No.034316
Book TitleGnani Purush Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Other
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy