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________________ [9] कुटुंब-चचेरे भाई-भतीजे 333 सब के हस्ताक्षर लेकर मुझे देता था। तब फिर मैं उसे फिर से आगे की सर्विस देता था, बिज़नेस का काम मैं उसे सौंप देता था। लड़का होशियार था लेकिन नहीं किया। वह वापस यहाँ से भाग गया। मेरे पैसों से सुधर जाए तो भी बहुत हो गया तो वह सब जगह से धक्के खाकर वापस यहाँ आया। मैं और मेरे भागीदार कांति भाई सो गए थे। उस समय वह यहाँ आकर बाहर खड़ा रहा और कहने लगा, ‘दादाजी, मैं आया हूँ'। मैंने धीरज रखा। मैंने कहा, 'यह सब क्या है ?' फिर वह बताने लगा कि, 'मुझे कहीं पर कोई भी नहीं रखता, मुझे आप ही संभालो और अब अगर कोई भूल हो तो मुझे समुद्र में फेंक देना'। तब फिर मेरी आँखें थोड़ी ठंडी हुई। यदि वह ऐसा एफिडेविट दे रहा है तो उससे ज़्यादा तो हमें कुछ नहीं चाहिए। इसलिए फिर मैंने अपने यहाँ नौकरी पर रखा, उसे सुधारने के लिए। हमारे भागीदार से कह दिया कि दस हज़ार का नुकसान हो जाए या कुछ टेढ़ा-मेढ़ा करे तब भी लेट गो करना है। अगर कोई व्यक्ति मेरे पैसों से सुधर रहा है तो मेरे लिए बहुत हो गया। उसके बाद उस व्यक्ति की जितनी-जितनी बुरी आदतें थीं न, तो मैंने उसके सामने एक शर्त रखी। मैंने भागीदार से कहा, 'इस काम की पूँजी उसके हाथ में दे दो। उसके हाथ में पूँजी देकर कहना कि 'तुझे कच्चा लिखना है और सभी को पैसे वगैरह देने हैं और सब को मुझसे पूछकर देने हैं। उसमें तुझे तेरा खर्च भी लिख देना है'। फिर मैंने कहा, 'जा, वसई में हमारा यह काम चल रहा है, तो तू वहाँ पर जा'। तो मैंने उसे हिसाब लिखने के लिए किताब दी। तब फिर वह सारे कामकाज करता था लेकिन उस ज़माने में रोज़ आठ-दस रुपए उड़ा देता था, 1942 में। तब फिर मैंने उससे क्या कहा कि, 'भाई, ऐसा हमारे यहाँ नहीं चलेगा। तु जो भी करता है वह यहाँ पर लिख देना तो मैं चला लूँगा, लेकिन तू इस तरह इधरउधर पैसों का गड़बड़-घोटाला कर देता है। यों तो तू इसमें कुछ भी गलत नहीं लिख रहा है और इस तरह गड़बड़ कर रहा है। अब
SR No.034316
Book TitleGnani Purush Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Other
File Size2 MB
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