________________
312
ज्ञानी पुरुष (भाग-1)
प्रश्नकर्ता : हाँ।
दादाश्री : फिर भी हीरा बा तो रहते हैं न अच्छी तरह से। इतना ही है कि मेरे पास नहीं बचा, लेकिन फिर मुझे चाहिए भी क्या? किसलिए चाहिए मुझे? मुझे पैसा किसलिए चाहिए? यह सब बोझ जैसा ही है।
प्रश्नकर्ता : आपको तो ये सब (महात्मा) चाहिए।
दादाश्री : हाँ। बस-बस, बहत हो गया। जब मैं आप सब को देखता हूँ, तो मुझे खूब आनंद होता है! अभी शंकर भाई को देखता हूँ तब भी आनंद होता है। उनके लिए कभी भी चिढ नहीं मची। बचपन में शायद कभी चिढ़ मची होगी, फिर उसके बाद नहीं। सुधारने का प्रयत्न किया लेकिन फिर समझ गए कि, 'इसमें कुछ होने वाला नहीं है। और हमारे दूसरे मामा, जो इनके चाचा लगते हैं वे कह रहे थे कि, 'यह पत्थर है, आप लोग क्यों इसे सुधारने की कोशिश कर रहे हो? आपका टांकना भी बेकार जाएगा'। मैंने कहा, 'मामा, मेरा टांकना बेकार जाएगा। इसमें आपका क्या जा रहा है? मामा के बेटे के तौर पर क्या यह मेरा फर्ज़ नहीं है?'
प्रश्नकर्ता : ठीक है।
दादाश्री : अब सारे फर्ज़ खत्म हो गए। अब तो सब में समान भाव हो गया है, उन दिनों तो फर्ज़ था या नहीं? आप क्या कहते हो? व्यवहार था न ऐसा? लेकिन यह उदाहरण बहुत ही परेशानी वाला है। नहीं?
प्रश्नकर्ता : दादा, इतनी जागृति और ऐसा विचार आना तो बहुत बड़ी बात है। माँगने से पहले पैसे देकर सामने वाले की इज़्ज़त बचाई
दादाश्री : हमने किसी को भी माँगने नहीं दिया। ऐसा समय ही नहीं आया कि जिन्हें मुझसे कुछ लेने की ज़रूरत हो और उनमें से किसी को भी माँगना पड़े, मैं शुरू से ही उनसे कह देता हूँ कि 'मेरे पास इतने पैसे ज़्यादा है। अगर ज़रूरत हो तो ले जाना'। तो तुरंत ही सामने वाला