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________________ [8.1] भाभी के साथ कर्मों का हिसाब 235 इसलिए फिर अक्ल चलाई। अक्ल अच्छी थी, तो अक्ल से कहा, 'तू क्या कहती है ?' तो उसने कहा, 'ऐसा करो न, टिकट के बिना बैठ जाओ यहाँ से और वासद का स्टेशन मास्टर अपनी जान-पहचान वाला है, वहाँ उतरकर वहाँ से टिकट ले लेना तो दो आने बच जाएँगे'। तो अंदर ऐसी बात सूझी कि 'भाई, यों ही गाड़ी में बैठ जाओ न'। फिर मैंने कहा, 'रहने दो, हमें टिकट ही नहीं लेनी है। यों ही बैठ जाओ वासद से टिकट ले लेंगे। दो-तीन आने का इतना रास्ता तो कट जाएगा न!' बिना टिकट के, खुदाबक्ष की तरह अतः वहाँ फिर हमने तय किया कि 'आज तो रेलवे की चोरी करो'। क्योंकि अब मेरे पास एक आना भी नहीं मिल सकता था और गाड़ी में जा नहीं सकते थे, 'उसके बजाय गाड़ी में बैठ जाओ न, जो होगा देखा जाएगा'। तो इस तरह अक्ल का उपयोग किया, तो बिना टिकट के खुदाबक्ष की तरह बैठ गए थे गाड़ी में। प्रश्नकर्ता : फिर आप वासद तक बिना टिकट आ गए? दादाश्री : हाँ! बिना टिकट आ गए, 'खुदाबक्ष'! वह खुदाबक्ष नाम भी किसी ने नहीं रखा था क्योंकि उस समय नाम रखने वाले को भी अक्ल नहीं थी कि इसे क्या कहते हैं? जो बिना टिकट के जाते हैं उन्हें क्या कहते हैं ? उनका नाम रखने वाला भी कोई नहीं था। कोई अक्ल वाला होता तो नाम रखता न? फिर जब बहुत बढ़ गए तो उसे 'खुदाबक्ष' नाम दे दिया। खुदा द्वारा बक्षे हुए!' उन दिनों टिकट नहीं लेनी होती थी तो टॉयलेट में बैठे रहते थे। ठेठ मुंबई तक जाते थे तब भी टॉयलेट में, बाहर ही नहीं निकलते थे। एक बार तो पाँच रुपए के लिए रुके रहे थे। पाँच रुपए कहाँ से लाते? पाँच रुपए तो बहुत बड़ी चीज़ थी। बेचारे स्टेशन मास्टर जी के महीने की तनख्वाह ही सात रुपए थी। टिकट की चोरी करने से बचे दो आने उसके बाद वहाँ से मैं दो-तीन स्टेशनों तक बिना टिकट के बैठा।
SR No.034316
Book TitleGnani Purush Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Other
File Size2 MB
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