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________________ ज्ञानी पुरुष ( भाग - 1 ) I और सो जाएँगे। हमें ऐसा कोई लोभ नहीं है । हमें जो थोड़ा-बहुत मिल गया, वही ! तीन रुपए मिले तो तीन में चलाएँगे, दो मिले तो दो में चलाएँगे, मुझे सब तरह से चलाना आता है । कम से कम पैसे में निभाना आता है, मेन्टनन्स करना आता है। क्योंकि मेरा स्वभाव कैसा है ? मैं क्षत्रिय हूँ लेकिन कम से कम ज़रूरतें हैं और परिग्रह तो मुझे पहले से ही बोझ लगता है I 60 ऐसा है कि लोग रोज़ का एक रुपए में चला सकते हैं। उन दिनों तीस रुपए तनख्वाह मिलती थी, क्लर्क को । अतः सामान्य व्यक्ति तो महीने के तीस रुपए में पूरा, हर प्रकार से काम पूरा कर लेते थे। तब मेरे मन में ऐसा था कि इन लोगों को तीस में करना आता है तो मुझे बाईस में करना आता है। यानी थोड़े में समावेश करना आता है और इतना हुनर है कि किसी के सामने हाथ नहीं फैलाना पड़े। मेरा खर्चा कम है। मैं तो ऐसा इंसान हूँ कि जितने कम खर्चे में कहें न, उतने कम खर्चे में समावेश कर लूँ । तब फिर है कोई और परेशानी ? यह तो जिसे ऐशो-आराम की ज़रूरत है उसके लिए है । उसमें मैं बहुत कंट्रोल कर सकता हूँ। मुझे जब ज़रूरत नहीं होगी तब सो जाऊँगा और ज़रूरत होगी तब उठ जाऊँगा। प्रश्नकर्ता: ठीक है I दादाश्री : आज पान के ग्राहक नहीं आए तो क्या हो गया, कुछ बिगड़ जाएगा ? कल आएँगे। साथ में यह भी देखते थे न, कि 'मैं अपना लेकर आया हूँ । मुझे ऐसा कुछ नहीं चाहिए। मुझे कोई लाख, दो लाख, या पच्चीस लाख, या मुझे कोई बैंक नहीं खोलना है । मुझे बैंक का क्या करना है ? इस पेट में खाने लायक चाहिए। वह भी एक-दो - पाँच आश्रित होंगे उनके लायक, और क्या झंझट है हमें ? मेरे पास कम होगा तो चलेगा। खिचड़ी और सब्ज़ी, इससे आगे इच्छा नहीं है । चीजें कम होंगी तो चलेगा लेकिन मेरी स्वतंत्रता पर ब्रेक नहीं चलेगा। मुझे यह परतंत्रता बिल्कुल भी पसंद नहीं है। परवशता आई डोन्ट वॉन्ट (मुझे नहीं चाहिए), स्वतंत्रता चाहिए'।
SR No.034316
Book TitleGnani Purush Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Other
File Size2 MB
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