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________________ (१.१) विभाव की वैज्ञानिक समझ प्रश्नकर्ता : विभाव तो स्वभाव से अलग चीज़ है न? दादाश्री : नहीं, विभाव तो, जड़ और चेतन तत्त्व के पास-पास आने से जो तीसरा विशेष परिणाम उत्पन्न होता है, उसे कहा गया है। प्रश्नकर्ता : लेकिन आत्मा में विभाव नहीं है, द्रव्य दृष्टि में विभाव नहीं है, लेकिन जब वह पर्याय दृष्टि में आता है तब विभाव उत्पन्न होता है, वह बात तो सही है न? दादाश्री : विभाव के बिना तो पर्याय दृष्टि हो ही नहीं सकती। पर्याय दृष्टि बाद में होती है, विभाव होने के बाद में। अतः मूल कारण विभाव है। उसे विभाविक पर्याय कहा गया है। मूल तत्त्व के स्वाभाविक पर्याय तो इससे अलग ही हैं। (पर्याय स्वाभाविक हैं। पर्याय दृष्टि ही रोंग बिलीफ है।)* उस विशेष भाव को वीतरागों ने विभाव कहा है। जबकि लोग क्या समझे कि आत्मा की दृष्टि सांसारिक हो गई है। अरे भाई, यह दृष्टि नहीं बदली है। ऐसा हो ही नहीं सकता। खुद के द्रव्य, गुण व पर्याय तो शुद्ध ही हैं। जैसे भगवान महावीर के थे, वैसे ही शुद्ध हैं। ज्ञानी वह सब देखने के बाद आपको ज्ञान देते हैं। आत्मा का स्वभाव है। खुद का स्वभाव अर्थात् खुद के गुणधर्म और वह खुद की बाउन्ड्री में ही रहता है। आत्मा गुणधर्म और बाउन्ड्री से बाहर जाता ही नहीं है और वह उसका स्वभाव है और फिर स्वभाव में रहते हुए यह विशेष भाव है। प्रश्नकर्ता : दादा! स्वभाव और विभाव दोनों विरुद्ध हैं ? दादाश्री : नहीं, विभाव को विशेष भाव कहा जाता है। विशेष भाव 'मैं' के रूप में उत्पन्न हुआ। 'मैं कुछ हूँ और यह मैंने ही किया है, मेरे अलावा और कौन है करने वाला?' यह विशेष भाव है। यह विरुद्ध भाव नहीं है। यदि आत्मा में स्वाभाविक और विरुद्ध भाव दशा, दोनों साथ में होंगे तो वह आत्मा कहलाएगा ही नहीं न! *विभाव होने के बाद पर्याय से संबंधित और अधिक विवरण के लिए-खंड-२ में
SR No.034306
Book TitleAptavani 14 Part 1 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year
Total Pages352
LanguageHindi
ClassificationBook_Other
File Size2 MB
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