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पर्यायों में वीतरागता कब आती है ? संपूर्ण शुद्ध हो जाने पर। सभी कर्मों का निकाल (निपटारा) हो जाने पर। पहले अंदर शुद्ध हो जाता है, उसके बहुत समय बाद बाहर शुद्ध होता है।
आत्मद्रव्य का स्वरूप, ज्ञान (गुण) और पर्याय होते हैं।
अवस्था स्वरूप को देखते हैं पर्याय। जितने भाग में ज्ञान ढका हुआ है, उतने ही भाग में पर्याय से देखता है और जब 'खुद' ज्ञान में देखता है, तब पूरा केवलज्ञान स्वरूप ही दिखाई देता है।
केवलज्ञान कभी भी पर्याय रूपी नहीं होता। ज्ञान गुण तो संसार के संदर्भ में कहा गया है। आत्मा का मूल गुण तो विज्ञान तक जा सकता
क्या बुद्धि को मतिज्ञान कहते हैं ? नहीं। ज्ञान में बुद्धि हो ही नहीं सकती न!
बुद्धि अर्थात् अहंकारी ज्ञान और आत्मा के विभाविक पर्याय अर्थात् अहंकारी ज्ञान।
संक्षेप में विभाविक आत्मा (यानी 'खुद') पर्याय के रूप में विनाशी है और ज्ञान के रूप में अविनाशी है। केवलज्ञान के बाद खुद पर्याय रूपी नहीं रहता।
"मैं' पर्याय से भी संपूर्ण शुद्ध और सर्वांग शुद्ध हूँ', यहाँ पर आत्मा के स्वाभाविक पर्यायों की बात है और मूल आत्मा में तो विभाविक पर्याय हैं ही नहीं। विभाविक पर्याय ही अशुद्ध हैं, उन्हें शुद्ध करना है, केवल तक पहुँचने के लिए।
दादाश्री कहते हैं कि हमारी भी चार डिग्री तक की बुद्धि खत्म होनी बाकी है, उतने ही अशुद्ध पर्याय बचे हैं। वे पर्याय जब शुद्ध हो जाएँगे तो हमें केवलज्ञान हो जाएगा।
केवलज्ञान होने के बाद में देह व वाणी बाकी रहते हैं, लेकिन वे
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