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समर्पण चौदह गुंठाणे चढ़ाए, चौदहवीं आप्तवाणी; सूक्ष्मतम आत्म संधि स्थल, 'मैं' समझ में आया!
संसार उत्पन्न होने में, मात्र बिलीफ है बदली;
उसे जानते ही, राइट बिलीफ अनुभव हुई! स्वभाव-विभाव के भेद, दादा ने परखाए; अहो! अहो! जुदापन की जागृति बरताएँ!
द्रव्य-गुण-पर्याय के भेद को, सूक्ष्मता से जानकर;
मोक्ष का सिक्का पाकर, हुआ आत्म उत्सव ! स्व में रहे उसे, स्वस्थ आनंद सदा; अवस्था में रहे उसे अस्वस्थता सदा!
हैं चेतनवंती, चौदह आप्तवाणियाँ;
प्रत्यक्ष सरस्वती, बरती यहाँ! टूटे श्रद्धा मिथ्या, पढ़ते ही इस वाणी को; पाएगा समकित, ज्ञानी के अनुसार चलेगा जो!
'मैं' समर्पण, चरणों में अक्रम ज्ञानी के; जग को समर्पण चौदहवीं आप्तवाणी ये!
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-डॉ. नीरू बहन अमीन