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________________ शुद्ध होते-होते संपूर्ण शुद्ध हो जाता है। जैसा चिंतन करता है, वैसा बन जाता है। शुद्ध हो जाने पर भगवान के साथ एकाकार हो जाता है। जैसा व्यवहार करता है, वैसी ही भजना होती है। आखिर में अंतिम अवतार में सिर्फ निश्चय ही काम का है और निकाली व्यवहार की भजना होती है, तब मुक्त हो पाता है। (खंड-२) द्रव्य - गुण - पर्याय ब्रह्मांड में जो छः शाश्वत तत्त्व हैं, वे सभी अपने खुद के स्वतंत्र द्रव्य, गुण और पर्याय सहित ही हैं। इन छः तत्त्वों में एक तत्त्व आत्मा है, जो रियल में हम खुद ही हैं। यहाँ इस खंड में केवल आत्मा के ही द्रव्य, गुण व पर्यायों के बारे में विशेष स्पष्टता की गई है। आत्मार्थीजन को प्रस्तुत खंड की आराधना करने से पहले अतिअति आवश्यक है कि दो सिद्धांतों को स्पष्ट रूप से समझकर आगे स्टडी (अध्ययन) करें। मूल दरअसल आत्मा (निश्चय आत्मा) तीनों ही काल में द्रव्यगुण-पर्याय से सिद्ध भगवान जैसा ही शुद्ध है। जिसके बारे में इससे अधिक समझने की अभी इस स्तर पर ज़रूरत नहीं है। विभाविक आत्मा ('मैं', व्यवहार आत्मा) की विभाविक दशा वाले व्यतिरेक गुणों से उत्पन्न हुए जो पर्याय हैं, जो कि अशुद्ध माने जाते हैं, स्वरूप जागृति के बाद उन्हीं को शुद्ध करना होता है। पाँच आज्ञा, शुद्ध उपयोग वगैरह की निरंतर जागृति से तमाम अशुद्ध पर्याय शुद्ध हो जाते हैं और संपूर्ण स्वभाव दशा उत्पन्न होती है। मूल आत्मा जैसी ही दशा हो जाने पर पर्याय की विभाविक दशा का संपूर्ण नाश (क्षय) होता है। और खुद दरअसल आत्म स्वरूप, केवलज्ञान स्वरूप बन जाता है और अंत में तो केवल द्रव्य रूप आत्मा ही रहता है, केवलज्ञान प्रकाशक ही! आत्मार्थियों को ऐसा समझकर अध्ययन करना है कि यहाँ पर अशुद्ध 47
SR No.034306
Book TitleAptavani 14 Part 1 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year
Total Pages352
LanguageHindi
ClassificationBook_Other
File Size2 MB
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