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________________ १३२ आप्तवाणी - १४ ( भाग - १) 'मैं' को करना है शुद्ध... प्रश्नकर्ता : वह चेतन तत्त्व शुद्ध होकर निकल गया । उसके बाद यह जो अचेतन तत्त्व बचा, वह शुद्ध रूप में निकल जाएगा ? दादाश्री : शुद्ध हो ही जाता है, देर ही नहीं लगती न शुद्ध होने में। जब वह शुद्ध हो जाता है तभी तो आत्मा अलग होता है वर्ना होगा ही नहीं। जितना विभाविक हो गया है, विशेष भाविक पुद्गल (जो पूरण और गलन होता है), जब वह पूरा ही शुद्ध हो जाएगा तब आत्मा अलग हो जाएगा। इसीलिए हम कहते हैं न, निकाल करो फाइलों का । जैसेजैसे समभाव से निकाल करता जाएगा वैसे-वैसे अलग होता जाएगा। प्रश्नकर्ता : वे जो दूसरे तत्त्व हैं, वे सभी तत्त्व अपने-अपने स्वभाव में हैं लेकिन तू तेरे स्वभाव में आ जा । अर्थात् यदि कर्तापन में से निकल जाएगा तब ऐसा होगा ? दादाश्री : यह जो 'शुद्धात्मा' है, वही 'आप' हो और वही आपका स्वरूप है। अब ‘आप' वहाँ से अलग हो गए हो, तो उसे देख-देखकर आप उस रूप हो जाओ। वे अक्रिय हैं, वे ऐसे हैं, वैसे हैं और ऐसा सोचते-सोचते आप उसी रूप (जैसे) हो जाओ। यह तो, व्यतिरके गुण उत्पन्न होने की वजह से 'अपनी' मान्यता बन गई है । अतः यह हमें देखकर करना है 1 भाव भी परसत्ता प्रश्नकर्ता : कभी-कभी ऐसा प्रश्न उठता है कि किसी भी वस्तु के लिए सिर्फ भाव ही रखना है ? फिर देखते ही रहना है कि क्या होता है ? दादाश्री : भाव करना भी हाथ में नहीं है । हमने भाव निकाल दिया है। भाव क्रमिक मार्ग में है। हमने भाव बिल्कुल ही निकाल दिया है ! पूरा भाव ही डिसमिस कर दिया है। आपको अभी जो इच्छाएँ होती हैं, वे भाव नहीं हैं। जो खाने का भाता है, आम भाते हैं, तो वह भाव नहीं है । भाव बिल्कुल अलग चीज़ है। यदि ' आप चंदूभाई हो ' तभी भाव होगा, वर्ना नहीं हो सकता।‘आप चंदूभाई नहीं हो ' इसलिए भाव नहीं है। अब 'मैं चंदूभाई',
SR No.034306
Book TitleAptavani 14 Part 1 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year
Total Pages352
LanguageHindi
ClassificationBook_Other
File Size2 MB
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