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आप्तवाणी-१४ (भाग-१)
की कर्ता है। बहुत हुआ तो प्रकाश देती है। वह यहाँ पर हमें खाना नहीं डालती न मुँह में? या फिर पंखा नहीं करती न! पंखा तो जब पंखा घुमाएँगे तभी होगा। यह लाइट पंखा नहीं करती। क्यों?
प्रश्नकर्ता : इसलिए क्योंकि उसका स्वभाव ही ऐसा है।
दादाश्री : वैसा ही यह है। यह जो आत्मा है, वह यों खाता-पीता नहीं है, ऐसा कुछ भी नहीं करता।
प्रश्नकर्ता : इसमें स्वभाव कर्म का कर्ता का अर्थ क्या है?
दादाश्री : आत्मा खुद के स्वभाव, मूल जो स्वभाव है, स्वाभाविक स्वभाव, उसी का कर्ता है। यह तो, जिसे संसार में कर्ता कहा गया है, वह विभाव कर्म का कर्ता कहा है। बहुत गहरा लगता है। नहीं? यह जो संसार का कर्ता कहा है, वह तो भ्रांति से कहा है। जब तक भ्रांति है तब तक इस संसार का कर्ता है। जब भ्रांति चली जाए तब स्वरूप का कर्ता। खुद के स्वभाव का कर्ता, अन्यथा अकर्ता है। किसी भी बारे में कर्ता है ही नहीं। ऐसा कुछ भी नहीं करता। हम लोग यह जो करते हैं न, कहते हैं कि 'ऐसा किया, वैसा किया', वह आत्मा नहीं करता।
प्रश्नकर्ता : बिना अनुभव के समझ में नहीं आ सकता। दादाश्री : तुझे यदि अनुभव चाहिए तो यहाँ आना पड़ेगा।
प्रश्नकर्ता : इसका अर्थ ऐसा हुआ कि 'पर' तरफ के झुकाव वाले जो भाव हैं, वे सभी अस्वभाव भाव और खुद के 'स्व' तरफ के जो भाव हैं, वे स्वभाव भाव?
दादाश्री : हाँ, यह जो पर-स्वभाव है, तो जब तक आत्मा 'पर' में रहता है तब तक तो यह संसार है ही न! जब स्व-स्वभाव भाव में आएगा न, तब संसार छूट जाएगा और पर-स्वभाव भाव अर्थात् परपरिणति । अन्य कोई कर रहा है और खुद कहता है, 'मैं कर रहा हूँ'।
यह विशेष भाव क्या है? प्रकृति किस प्रकार से अपने आप ही उत्पन्न हो जाती है? यह सब 'मैंने' देखा है। 'मैं' यह सब देखकर बता