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________________ (१.८) क्रोध-मान से 'मैं', माया-लोभ से 'मेरा' १०९ पिछले कौन से परिणाम आ रहे हैं! उन सब को देखते रहते हैं। पहले नहीं देखता था, विचरता था। और विचरना ही विचार है। प्रश्नकर्ता : लेकिन ज्ञानी अभी व्यवहार में हैं तो अभी दूसरे तत्त्व भी संबंध में ही हैं न? दादाश्री : होंगे ही न! प्रश्नकर्ता : तो ऐसा कहा जाएगा न कि वे तत्त्व एक हो गए! दादाश्री : ऐसा तो काल के अनुरूप हुआ है। उन्हें मिलना नहीं कहेंगे। वे तो परिणामिक हैं। मिलना अर्थात् ऐसा कॉज़ में होता है। परिणाम तो इफेक्ट है। कारण, कर्ता बनने का प्रश्नकर्ता : यदि इगो को किसी ने उत्पन्न ही नहीं किया है तो फिर वह ज़िम्मेदार भी नहीं है, वह बात सही है न? दादाश्री : किसी की भी ज़िम्मेदारी है ही कहाँ! ये तो कुदरती रूप से मिल गए हैं, इसलिए उत्पन्न हो गया है और उत्पन्न होकर फिर उसका असर नहीं हुआ है। वह आत्मा को परेशान नहीं करता और आत्मा उसे परेशान नहीं करता। वह जो उत्पन्न हुआ है, अब वह दुःख उस अहंकार को है, आत्मा को दुःख नहीं है। आत्मा दुःख को समझता ही नहीं है। अतः अहंकार की यह इच्छा है कि 'हमें इसमें से मुक्त होना है, इस दशा में से'। तो यह मैं पन और मेरापन उत्पन्न हुआ। तो फिर उसे निभाएगा कौन? मेन्टेनन्स कौन करता है? आत्मा की उपस्थिति। यदि शरीर में आत्मा की उपस्थिति नहीं होगी तो वह सब बंद हो जाएगा। ज्ञान के बाद कषाय अनात्मा के प्रश्नकर्ता : यदि खुद के स्वरूप में आ जाए तो फिर क्रोध नहीं होगा, मान नहीं होगा, माया नहीं होगी, कुछ भी नहीं होगा न? दादाश्री : क्रोध-मान-माया-लोभ पुद्गल (जो पूरण और गलन
SR No.034306
Book TitleAptavani 14 Part 1 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year
Total Pages352
LanguageHindi
ClassificationBook_Other
File Size2 MB
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