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समय जैनमत प्रसिद्ध हुआ। इसी प्रकार समय-समय पर अन्य गुण निष्पन्न नाम भी आगमों के आधार पर प्रचलित होते रहे हैं।
प्रस्तुत छोटी सी पुस्तक में इसी दृष्टि से विचार विमर्श किया है कि स्थानकवासी शब्द भागमों में किस अर्थ में व्यवहृत हुआ है और यह शब्द कितने महत्व का है ? भारमविकाश के लिए इस शब्द की कितनी आवश्यकता है। इतना ही नहीं, इस पुस्तक के अध्ययन करने से प्रत्येक मुमुक्षु को निश्चित हो जायगा कि-भाव स्थानकवासी४ बनने से ही उत्तम स्थानक को प्राप्ति हो सकती है। शाखा और प्रतिशाखाओं से ही वृक्ष का सौन्दर्य द्विगुणित हो उठता है। ठीक इसो प्रकार जैनधर्मरूपी वृक्ष भी भनेक शास्त्राओं और प्रतिशाखाओं से युक्त होने पर ही सौन्दर्य प्राप्त करता है । ध्यान रहे कि शाखा प्रतिशाखा में परस्पर असूया, निन्दा, द्वेष, कलह, ईर्ष्या और वैमनस्य आदि न हो । भनेकान्तवाद किंवा स्याद्वाद तथा उत्सर्ग अपवाद आदि के समन्वयविधायक दृष्टिकोणों को लक्ष्य में रखकर प्रत्येक शाखा और प्रतिशाखा में परस्पर प्रेम, मैत्री भावना, पारस्परिक गुणानुवाद, सहानुभूति, धर्मप्रचार भादि क्रियाएँ हों, तभी जैनमत के सिद्धान्तों का जनता में भलीभाँति प्रचार हो सकता है। इस पुस्तक में निष्पक्ष दृष्टि तथा स्याद्वाद के आश्रित होकर स्थानकवासी शब्द का विचार किया गया है । भाशा है, पाठकजन द्रव्य स्थानकवासी के साथ-साथ भाव स्थानकवासी बनने की चेष्टा करेंगे ताकि वे निर्वाण-प्राप्ति के अधिकारी हों।
अलं विद्वत्सु जैनमुनि उपाध्याय आत्माराम
३ जिणमयनिउणे अभिगमकुसले-दशवै० ६, ३, १५ ४ लोगुत्तमुत्तम. ठाणं सिद्धि गच्छसि नीरओ।
-उत्तराध्ययन ६, ५८
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