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(१) अथ श्री निशिथसूत्रका प्रथम उद्देशा.
जो भिख्खु-अष्ट कर्मोरुप शत्रुदलको भेदनेवालोंको भिक्षु कहा जाता है. तथा निरवध भिक्षा ग्रहण कर उपजीविका करणेवालोंको भिक्षु कहा जाता है. यहां भिक्षुशब्दसे शास्त्रकारोंने साधु साध्वीयों दोनोंको ग्रहन कीया है. 'अंगादान' अंगशरीर ( पुरुष स्त्री चिन्हरुप शरीर ) कुचेष्टा (हस्तकर्मादि) करनेसे चित्तवृत्ति मलीनके कारण कर्मदल एकत्र हो आत्मप्रदे. शोंके साथ कर्मबन्ध होता है. उसे ' अंगादान' कहते है.
(१) हस्तकर्म. (२) काष्टादिसे अंग संचलन. (३) म. र्दन. (४) तैलादिसे मालीस करना, (५) काष्ठादि सुगन्धी पदार्थका लेप करना. (६) शीतल पाणी तथा गरम पाणीसे प्रक्षालन करनो. (७) त्वचादिका दूर करना. (८) घ्राणेंद्रियद्वारा गंध लेना. (९) अचित्त छिद्रादिसे वीर्यपातका करना. यह सूत्र मोहनीय कर्मकी उदीरणा करनेवाले है. ऐसा अकृत्य कार्य साधुवोंको न करना चाहिये. अगर कोइ करेगा, तो निम्न लिखित प्रायश्चित्तका भागी होगा. मोहनीय कर्मकी उदीरणा करनेवाले मुनियोंको क्या नुकशान होता है, वह दृष्टांतद्वारा बतलाया जाता है.
(१) जैसे सुते हुवे सिंहको अपने हाथोंसे उठाना. (२) सुते हुवे सर्पको हाथोंसे मसलना. (३) जाज्वल्यमान अग्निको अपने हाथोंसे मसलना. (४) तिक्षण भालादि शत्रपर हाथ मारना. (५) दुखती हुइ आंखोको हाथसे मसलना. (६) आ. शीविष सर्प तथा अजगर सर्पका मुंहको फाडना. (७) तीक्षण धारवाली तलवारसे हाथ घसना, इत्यादि पूर्वोक्त कार्य करनेवाला मनुष्यको अपना जीवन देना पडता है. अर्थात् सिंह, सर्प,