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वह अवश्य दंडका भागी होगा. यह उदंश दुराचारसे बचाना और सदाचारमें प्रवृत्ति कराने के लीये ही है. दुराचार सेवन करना मोहनीय कर्मका उदय है, और दुराचारके स्वरुपको समझना यह ज्ञानावरणीय कर्मका क्षयोपशम है, दुराचारको त्याग करना यह चारित्र मोहनीयकर्मका क्षयोपशम है.
जब दुराचारका स्वरुपको ठीक तौरपर जान लेगा, तब ही उस दुराचार प्रति घृणा आवेगी. जब दुराचार प्रति घृणा आवेगी, तब ही अंतःकरणसे त्यागवृत्ति होगी. इसवास्ते पेस्तर नीतिज्ञ होनेकी खास आवश्यक्ता है. कारण-नीति धर्मकी माता है. माताही पुत्रको पालन और वृद्धि कर सक्ती है. .. यहां निशिथसूत्रमें मुख्य नीतिके साथ सदाचारका ही प्रतिपादन कीया है. अगर उस सदाचारमें वर्तते हुवे कभी मोहनीय कर्मादयसे स्खलना हो, उसे शुद्ध बनाने को प्रापश्चित्त बतलाया है. प्रायश्चित्त का मतलब यह है कि-अज्ञातपनेसे एकदफे जिस अकृत्य कार्यका सेवन किया है उसकी आलोचना कर दूसरी बार उस कार्यका सेवन न करना चाहिये. ___ यह निशिथसूत्र राजनीतिके माफिक धर्मकानुनका खजाना है. जबतक साधु साध्वी इस निशिथसूत्ररुप कानुनकोषको ठीक तौरपर नहीं समझे हो, वहांतक उसे अग्रेसरपदका अधिकार नहीं मिल सक्ता है. अग्रेसरकी फर्ज है कि-अपने आश्रित रहे हुवे साधु साध्वीयोंको सन्मार्ग में प्रवृत्ति करावे. कदाच उसमें स्खलना हो तो इस निशिथसूत्रके कानुन अनुसार प्रायश्चित्त दे उसे शुद्ध बनावे. तात्पर्य यह है कि साधु साध्वी जबतक आचारांग और निशिथसूत्र गुरुगमतासे नहीं पढे हो, वहांतक उस मुनियोंको अग्रेसर होके विहार करना, व्याख्यान देना, गोचरी जाना नहीं