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(९) पापरना हो, तो दुसरी दफे और भी आज्ञा लेना चाहिये.
(१० साधु साध्वीयोंको आज्ञा लेनेके पहला शय्या, सं. स्तारक वापरना ( भोगवना ) नहीं कल्पै. किन्तु पेस्तर मकान या पाटपाटलेवालेकी आज्ञा लेना, फिर उस शय्या संस्तारकको वापरना कल्पै, कदाचित् कोइ ग्रामादिमें शेष दिन रह गया हो, आगे जानेका अवकाश न हो और साधुवोंको मकानादि सुलभतासे मिलता न हो, तो प्रथम मकान में ठेर जाना फिर बादमें आज्ञा लेना कल्पै. विगर आज्ञा मकानमें ठेर गये. फिर घरका धणी तकरार करे. उस समय एक शिष्य कहे कि-हे गृहस्थ! हम रात्रिमें चलते नहीं है, और दुसरा मकान नहीं है, तो हम साधु कहां जावे ? उसपर गृहस्थ तकरार करे,जब वृद्ध मुनि अपने शिष्यको कहे-भो शिष्य! एकतो तुम विना आज्ञा गृहस्थोंके मकान में ठेरे हो, और दुसरा इन्होंसे तकरार करते हो, यह ठीक नहीं है. इनसे गृहस्थकी श्रद्धा वृद्ध मुनिपर बढ जानेसे वह कहते है किहै मुनि ! तुम अच्छे न्यायवन्त हो. यहां ठेरो, मेरी आज्ञा है.
(११) मुनि, गृहस्थोंके घर गौचरी गये, अगर कोई स्वल्प उपकरण भूलसे वहां पड जावे, पीछेसे कोइ दुसरा साधु गया हो, तो उसे गृहस्थोंकी आज्ञासे लेना चाहिये. फिर वह मुनि मिले तो उसे दे देना चाहिये, अगर न मिले तो उसको न तो आपले, न अन्य साधुवोको दे. एकान्त भूमिपर परठ देना चाहिये.
(१२) इसी माफिक विहारभूमि जाते मुनिका उपकरण विषय. (१३) एवं ग्रामानुग्राम विहार करते समय उपकरण विषय.
भावार्थ--साधुका उपकरण जानके साधुके नामसे गृहस्थकी आज्ञा लेके ग्रहण कीया था, अब साधु न मिलनेसे अगर आप