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(१८ ) परन्तु किसी साधु साध्वीयोंकी वाचना चलती हो, तो उसको वाचना देना कल्पै. अस्वाध्यायपर पाटे (वस्त्र) बन्ध लेना चाहिये. यह विशेष सूत्र गुरुगम्यताका है.
(१९) तीन वर्षके दीक्षापर्यायवाला साधु, और तीस वर्षकी दीक्षापर्यायवाली साध्वीको उपाध्यायकी पद्वी देना कल्पै.
(२०) पांच वर्षके दीक्षापर्यायवाला साधु और साठ वर्षकी दीक्षापर्यायवाली साध्वीको आचार्य (प्रवर्तणी) पट्टी देना कल्प. पद्वी देते समय योग्यायोग्यका विचार अवश्य करना चाहिये. इस विषय चतुर्थ उद्देशामें खुलासा कीया हुवा है.
(२१) ग्रामानुग्राम विहार करता हुवा साधु, साध्वी कदाच कालधर्म प्राप्त हो, तो उसके साथवाले साधुवोंको चाहिये किउस मुनि तथा साध्वीका शरीरको लेके बहुत निर्जीव भूमिपर परठे. अर्थात् एकान्त भूमिकापर परठे, और उस साधुके भंडोपकरण हो, वह साधुवोंको काम आने योग्य हो तो गृहस्थोंकी आज्ञासे ग्रहन कर अपने आचार्यादि वृद्धोंके पास रखे, जिसको जरुरत जाने आचार्यमहाराज उसको देवे. वह मुनि, आचार्यश्रीकी आज्ञा लेके अपने काममें लेवे.
(२२) साधु साध्वीयों जिस मकानमें ठेरे है. उस मकानका मालिक अपना मकान किसी अन्यको भाडे देता हो, उस समय कहे कि इतना मकानमें साधु ठेरे हुवे है, शेष मकान तुमको भाडे देता हुं, तो घरधणीको शय्यातर रखना. अगर घरधणी न कहे, और भाडे लेनेवाला कहे कि-हे साधु! यह मकान मैंने भाडे लीया है. परन्तु आप सुखपूर्वक विराजो, तो भाडे लेनेवालेको शय्यातर रखना. अगर दोनों आज्ञा दे, तो दोनोंको शय्यातर रखना.