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(१२ ) ग्राम, नगर, यावत् संनिवेश, जिसके एक दरवाजा हो, निकास प्रवेशका एक ही रहस्ता हो, वहांपर बहुतसे साधु जो आचारांग और निशीथ सूत्र के अज्ञात हो, उन्होंको उक्त ग्रामादिमें ठेरना नहीं कल्पै. अगर उन्होंकी अन्दर एक साधु भी आचारांग और निशीथका जानकार हो, तो कोइ प्रकारका प्रायश्चित्त नहीं है. अगर ऐसा जानकार साधु न हो तो उस सब अज्ञात साधुवोंको प्रायश्चित्त होता है. जितने दिन रहे, उतने दिनोंका छेद तथा तप प्रायश्चित्त अज्ञातोंके लीये होता है. भावना पुर्ववत्.
(१३) एवं ग्रामादिके अलग अलग दरवाजे, निकास प्रवेश अलग अलग हो तो भी बहुतसे अज्ञात साधुवोंको वहांपर रहना नहीं कल्पै. अगर एक भी आचारांग निशीथ पठित साधु हो तो प्रायश्चित्त नहीं आवे. नहि तो सबको तप तथा छेद प्रायश्चित्त होता हे.
भावार्थ-अज्ञात साधु अगर उन्मार्ग जाता हो, तो ज्ञात साधु उसे निवार सके.
(१४) ग्रामादिके बहुत दरवाजे, बहुत निकाश प्रवेशके रास्ते है. वहांपर बहुश्रुत,बहुतसे आगम विद्यावोंके जानकारको अकेला ठेरना नहीं कल्पै, तो अज्ञात साधुवोंका तो कहना ही क्या ? . (१५) ग्रामादिके एक दरवाजा, एक निकास प्रवेशका रास्ता हो, वहांपर बहुश्रुत, बहुत आगमका जानकार मुनिको अकेला रहना कल्पै; परन्तु उस मुनिको अहोनिश साधभावका ही चिंतन करना, अप्रमादपणे तप संयममें मग्न रहना चाहिये.
(१६) बहुतसे मनुष्य (स्त्री, पुरुष) तथा पशु आदि एकत्र हुवा हो, कुचेष्टावोंसे काम प्रदीप्त करते हो, मैथुन सेवन