________________
दुसरा साधु पद्वी योग्य हो तो उस योग्य साधुको पद्वी देवे. अगर दुसरा साधु भी योग्य न हो, तो मूल जो आचार्य कह गये थे, उसी साधुको पद्वी दे देवे. परन्तु उस साधुसे इतना करार करना चाहिये कि-अभी गच्छमें कोइ दुसरा पही योग्य साधु नहीं है, वहांतक तुमको यह पदवी दी जाती है. फिर पही योग्य साधु निकल आवेगा, उस समय आपको पदवी छोडनी पडेगी-इस सरतसे पद्वी दे देवे, बादमें कोइ पद्वीयोग्य साधु हो तो, संघ एकत्र हो मूल साधुको कहे कि-हे आर्य! अब हमारे पास पद्वीयोग्य साधु है. वास्ते आप अपनी पद्वीको छोड दें. इतना कहने पर वह साधु पद्वी छोड दे तो उसको किसी प्रकारका छेद तथा तप प्रायश्चित्त नहीं है. अगर आप उस पद्वीको न छोडे, तो जितना दिन पद्वी रखे, उतना दिनका छेद तथा तप प्रायश्चित्तका भागी होता है. तथा उस पद्वी छोडानेका प्रयत्न साधु संघ न करे तो सबके सब संघ प्रायश्चित्तका भागी होता है.
भावार्थ-गच्छपति योग्य अतिशयवान होता है. वह अपने शासन तथा गच्छका निर्वाह करता हुवा शासनोन्नति कर सकता है. वास्ते पद्वी योग्य महात्मावोंको ही देना चाहिये, अयोग्य को पद्वी देने की साफ मनाइ है.
(१४ ) इसी माफिक आचार्योपाध्याय प्रबल मोहकर्मोदयसे विकार अर्थात् कामदेवको जीत न सके, शेष भोगावलिकर्म भोगवने के लीये गच्छका परित्याग करते समय कहे कि-मेरी पट्टी अमुक साधुको देना. वह योग्य हो तो उसको ही देना, अगर पद्वीके योग्य न हो, तो दुसरा साधु पीके योग्य हो, उसे पद्वी देना. अगर दुसरा साधु योग्य न हो, तो मूल जिस साधुका नाम आचार्यने कहा था, उसे पर्वोक्त सरत कर पद्वी देना, फिर दुसरा