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(४) अगर आज्ञा नहीं देवे तो उस मुनिको आगेवन होके विचरना नही कल्पै. जो विना आज्ञा गणधारण करे, आगेवान हो विचरे, उस मुनिको, जितने दिन आज्ञा बाहार रहै, उतने दिनका छेद तथा तप प्रायश्चित होता है और जो उन्होंके साथ रहनेवाले साधु है, उसको प्रायश्चित्त नहीं है. कारण वह उस अग्रे श्वर साधु के कहनेसे रहे थे।
(५) तीन वर्षकी दीक्षा पर्यायवाले साधु आचारमें, संयममें, प्रवचन, प्रज्ञामे, संग्रह करने में, अवग्रह लेने में कुशलहोशीयार हो, जिसका चारित्र खंडित न हुवा हो. संयममें सबला दोष नहीं लगा हो, आचार भेदित न हुवा हो, कषाय कर चारित्र संक्लिष्ट नहीं हुवा हो, बहु श्रुत, बहुत आगम तथा विद्याओंके जानकार हो, कमसे कम आचारांग सूत्र, निशीथ सूत्र के अथ--पर मार्थका जानकार हो, उस मुनिको उपाध्याय पद देना कल्पै.
(६) इससे विपरीत जो आचारमें अकुशल यावत् अल्प सूत्र अर्थात् आचारांग, निशीथका अज्ञातको उपाध्यायपद देना नहीं कल्पै. .
(७) पांच वर्षों की दीक्षा पर्यायवाला साधु आचारमें कुशल यावत् बहुश्रुत हो, कमसे कम दशाश्रुतस्कन्ध, व्यवहार, बृहत्कल्प सूत्रोंके जानकार हो, उस मुनिको आचार्य, उपाध्यायको पढ़ो देना कल्पै
(८) इससे विपरीत हो, उसे आचार्य उपाध्यायकी परी देना नहीं कल्पै.
(९) आठ वर्षोंकी दीक्षा पर्यायवाले मुनि आचार कुशल यावत् बहुश्रुत-बहुत आगमों विद्याओंके जानकार कमसे कम स्थानांग, समवायांग सूत्रोंका जानकार हो, उस महात्मावोंको