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देश निमित्त ? इत्यादि कारणोंसे दोष सेवन कर आलोचना क्या .. माया संयुक्त है ? माया रहित है ? लोक देखावु है ? अन्तःकरणसे है ? इत्यादि सबका विचार, आलोचना श्रवण करते बखत करके यथा प्रायश्चित्तके योग्य हो, उसे इतनाही प्रायश्चित्त देना चाहिये. प्रायश्चित्त देते समय उसका कारण हेतु, अर्थ भी समझा देना. जैसे कहे कि-हे शिष्य ! इस कारणसे, इस हेतुसे, इस आगमके प्रमाणसे तुमको यह प्रायश्चित्त दीया जाता है.
(व्यवहारसूत्र.) अगर प्रायश्चित्त देनेवाला आचार्य आदि राग द्वेषके पश हो, न्यूनाधिक प्रायश्चित्त देवे तो, देनेवाला भी प्रायश्चित्तका भागी होता है, और शिष्यको स्वीकार भी न करना चाहिये तथा शाखाधारसे जो प्रायश्चित्त देनेपर भी वह प्रायश्चित्तीया साधु, उसे स्वीकार न करे तो, उसे गच्छमें नहीं रखना चाहिये. का. रण-एक अविनय करनेवालेको देख और भी अविनीत बनके गच्छमर्यादाका लोप करता जावेंगा. ( व्यवहारसूत्र.)
शरीरबल, संहनन, मनकी मजबुती-आदि अच्छा होने से पहले जमानेमें मासिक तपके ३० उपवास, चातुर्मासिकके १२० उपवास, छे मासीके १८० उपवास दीये जाते थे, आज बल, संहनन, मजबुती इतनी नहीं है: वास्ते उसके बदल प्रायश्चित्त दातावोंने 'जीतकल्प' सूत्रका अभ्यास करना चाहिये, गुरुगमतासे द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावका जानकार होना चाहिये. तांके सर्व साधु साध्वीयोंका निर्वाह करते हुवे, शासनका धोरी बनके शासन चलावे.
(जीतकल्पसूत्र.) निशिथसूत्रके लेखक-धर्मधुरंधर. पुरुष प्रधान प्रबल प्रता