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(१० प्रायश्चित्त ग्रहन कर, पश्चात्ताप न करे, वह आलोचना करने के योग्य होते है.
(स्थानांगसूत्र.) प्रायश्चित्त कितने प्रकारके है ? प्रायश्चित्त दश प्रकारके है. कारण-एक ही दोषको सेवन करनेवालोंको अभिप्राय अलग अलग होते है, तदनुसार उसे प्रायश्चित्त भी भिन्न भिन्न होना चा. हिये. यथा
(१) आलोचना-एक ऐसा अशक्त परिहार दोष होता है कि-जिसको गुरु सन्मुख आलोचना करनेसे ही पापसे निवृत्ति हो जाती है. .. (२) प्रतिक्रमण-आलोचना श्रवण कर गुरु महाराज कहे कि-आज तो तुमने यह कार्य कीया है, किन्तु आइंदासे ऐसा कार्य नहीं करना चाहिये. इसपर शिष्य कहे-तहत्त-अब मैं ऐसा कार्यसे निवृत्त होता हुं. अकृत्य कार्यसे पीछा हटता हुं.
(३) उभया-आलोचना और प्रतिक्रमण दोनों करे. भा. वना पूर्ववत्..
(४) विवेग-आलोचना श्रवण कर ऐसा प्रायश्चित्त दीया जाय कि-दुसरी दफे ऐसा कार्य न करे. कुछ वस्तुका त्याग कराना तथा परिठन कार्य कराना.
(५) कायोत्सर्ग-दश, धीश, लोगस्सका काउसग्ग तथा खमासणादि दिलाना.
(६) तप-मासिक तप यावत् छे मासिक तप, जो निशिथसूत्रके २० उद्देशोंमें बतलाया गया है.
(७) छेद-जो मूल दीक्षा लीथी, उसमें एक मास, यावत्