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१३८ जिस ग्लानोंकी वैयावञ्चके लीये भेजा था, उसकी वैयावच्च कोन करे ? इस लाये उस मुनिको शीघ्रतापूर्वक ही जाना चाहिये.
(२१) इसी माफिक रवाने होते समय आचार्यमहाराज तप छोडनेका न कहा हो, तो उस मुनिको जो प्रायश्चित्तका तप कर रहा था, उसी माफिक तप करते हुवे ही ग्लानिकी वैयावश्चमें जाना चाहिये. रहस्तेमें विलंब न करे.
(२२) इसी माफिक पेस्तर आचार्यमहाराजका इरादा था कि विहार समय इस मुनिको कहे कि-रहस्ते में तप छोड देना, परन्तु विहार करते समय किसी कारणसे कह नहीं सका हो तो उस मुनिको तप करते हवे ही ग्लानोंकी वैयावच्चमे जाना चाहिये. पूर्ववत् शीघ्रतासे.
(२३) कोइ मुनि गच्छको छोडके एकल प्रतिमारुप अभिग्रह धारण कर अकेला विहार करे, अगर अकेले विहार करने में अनेक परिसह उत्पन्न होते है, उसको सहन करनेमें असमर्थ हो, तथा आचारादि शीथिल हो जानेसे या किसी भी कारणसे पीछे उसी गच्छमें आना चाहे तो गणनायकको चाहिये कि-वह उस मुनिसे फिरसे आलोचना प्रतिक्रमण करावे और उसको छेद प्रायश्चित्त तथा फिरसे उत्थापन देके गच्छमें लेवे.
(२४ ) इसी माफिक गणविच्छेदक.
(२५) इसी माफिक आचार्योपाध्यायको भी समझना. भावार्थ-आठ' गुणोंका धणी हो, वह अकेला विहार कर सकता है. अकेला विहार करने में अप्रतिबद्ध रहनेसे कर्मनिर्जरा बहुत होती है. परन्तु इतना शक्तिमान होना चाहिये. अगर परिसह सहन करने में असमर्थ हो उसे गच्छमें ही रहना अच्छा है.
१ स्थानायांग सूत्रके आठवे स्थानको देखे.