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(४७) सचित्त शिला, छोटे छोटे पत्थरेपर, तथा घस जीव, स्थावर जीव, नीलण, फूलण, कची पृथ्वी, झालादिपर टटी, पैसाब परठे, परठावे.
(४८ ) घरका उंबरा, स्थूभ, उखले, ओटले. (४९) खन्धा, भीत, शेल, लेलू, उर्ध्वस्थानादि. (५०) इंटो, स्तंभ, काष्ठके ढगपर, गोबरपर.
(५१) खाड, खाइ, स्थुम, मांचा, माला, प्रासाद, हवेली भादि जो उर्ध्व हो, उसपर जाके टटी, पैसाव परठे, परिठावे, परिठावतेको अच्छा समझे. भावना पूर्ववत्. जीवोत्पत्ति, लोका. पवाद तथा शासनहीलना इत्यादि दोषोंका संभव है.
उपर लिखे ५१ बोलोंसे एक भी बोलको सेवन करनेवाले मुनियोंको लघु चातुर्मासिक प्रायश्चित्त होता है. प्रायश्चित्त विधि देखो वीसवा उद्देशामें.
इति श्री निशिथसूत्रके सोलवा उद्देशाका संक्षिप्त सार. .
(१७) श्री निशिथसूत्र-सत्तरवा उद्देशा. .. (१) 'जो कोइ साधु साध्वी ' कुतूहल निमित्त प्रस प्राणीयोंको-जीवोंको तृणपाश ( बन्धन ) मुंजकी रसी, वेतकी रसी, सूतकी रसी, चर्मकी रसीसे बांधे, बंधावे, बांधतेको अच्छा जाने.
(२) एवं उक्त बंधनसे बन्धे हुवेको छोडे. ३ भावना पूर्ववत्. एसी कुतूहल करनेसे परजीवोंको तकलीफ अपने प्रमाद, ज्ञान, ध्यानमें विघ्न होता है.