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भावार्थ- - साधु हमेशां मोहसे विरक्त होता है. वहां जानेपर रुप, लावण्य, शृंगार तथा मोहक पदार्थ देखनेसे मोहकी वृद्धि होती है. प्रश्न, ज्योतिष, मंत्रादि पूछने पर साधु न बताने से कोपायमान होवे, राजादिको शंका होवे इत्यादि दोषोंका संभव है. ( ४ ) " साधु, राजा के अन्तेउर-गृहद्वार जाके दरवानसे कहे कि - हे आयुष्मन् ! मुझे राजाका अन्तेउरमें जाना नहीं कल्पे. तुम हमारा पात्र लेके जाओ, अन्दरसे हमे भिक्षा ला दो. ऐसा वचन बोले. ३
(५) इसी माफिक दरवान बोले कि - हे साधु ! तुमको राजाका अंतेउरमें जाना नहीं कल्पे आपका पात्र मुझे दो, में आपको अन्दर से भिक्षा लादूं. ऐसा वचन साधु सुने, सुनावे, सुनतेको अच्छा समझे.
भावार्थ - विगर देखे आहार लेना नहीं कल्पै. सामने लाया आहार भी मुनिको लेना नहीं कल्पै.
( ६ ) राजा जो उत्तम जातिवाला है. उनके राज्याभिषेक समय भोजन निष्पन्न हुवा है, जिसमें द्वारपालोंका भाग है, पशु, पक्षीका भाग, नोकका भाग, देवताका भाग, दास दासीयोंका भाग, अभ्वका भाग, हाथीयोंका भाग, अटवी निवासीयोंका भाग, दुर्भिक्ष- जिसको भिक्षा न मिलती हो, दुश्कालादिकं गरीबोंका भाग, ग्लान - चमारोंका भाग, बादलादि बरसात से भिक्षाको न आ सके, पाहुणा आया हुवा उन्होंका भाग, इन्होंके सिवाय भी के जीवका भागवाला आहार है. उसे ग्रहन करे, करावे, करते को अच्छा समझे.
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भावार्थ- - उक्त जीवोंको अन्तराय पडे जिससे साधुवोंसे द्वेष करे, अप्रीतिका कारण होवे इत्यादि.