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________________ (७६) जो कर्म दलक वेदके निरस कर आत्म प्रदेशोंसे छोडते है उसकों शास्त्रकारोंने “निर्जरा" काहा है इसका भी पूर्ववत ७५ मलापक होता है । एवं २२५ और पूर्वके ३०० मीलानेसे ५२५ अलापक हुवे । (प्र०) हे भगवान् । जीव कांक्षामोहनिय कम वेदे ? (उ०) हाँगौतम । जीव कांक्षामोहनिय कर्म वेदता है । (प्र०) हे करूणासिन्धु । कीस कारणसे वेदता है। - (उ०) हे वत्स । एकेक कारण ‘जेसे कुशास्त्रका श्रवण मिथ्यात्वी लोकोंका अधिक परिचय करनेसे अध्यवसायोंका मलीनता होना कारण आत्मा निमत्त वासी है जेप्सा जेसा निमत्त मीलता है जेसी जेसी जीवोंकि प्रवृति होती है खराब प्रवृति होनेसे जीवकों . . (१) शांका-स्वतीर्थीकि वचनमे शांका का होना। (२) कांक्षा-पर दर्शनीयों के आडंबर चमत्कार देख वच्छा । (३) वितगीच्छा-धर्म करणीके फलमें शंसय होना । (४) भेद समावना-वस्तु विचारमें मतिका भेद होना । (६) कुलस समावन्ना-सत्य वस्तुमें विप्रीत दृष्टीका होना। इस वातोंसे जीव कांक्षा मोहनिय कर्म वेदता है । ... (प्र०) हे प्रभो ! कीसी जीवोंके ज्ञानवरणियोदय इतना ज्ञान नहीं है कि तत्व वस्तुका पूर्ण निर्णय कर सके । इतना पुरुषार्थ न हों, आजीवका निमित्तसे इतना समय न मीले । आयुष्य समय नजीक आगया हो इत्यादि परन्तु दर्शन मोहनियका क्षोपशम होनेपर वह जीव कहता है कि 'तमेव सच्च' जो सर्वज्ञ
SR No.034234
Book TitleShighra Bodh Part 16 To 20
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar
PublisherRavatmal Bhabhutmal Shah
Publication Year1922
Total Pages424
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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