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(उ०) वीर्य दोय प्रकारका है (१) सकरण वीर्य जो कि उस्थानादि कर्म कीया जाय, उनोसे योगोंका व्यापार कि प्रवृति होती है (२) अकरण वीय जो कि आत्माका निमगुण प्रगट हो उस्थानादि अपेक्षा रहीत होता है। यहांपर जो प्रश्न करते है वह सकरण वीयकि अपेक्षासे ही करते है ।
(प्र०) हे भगवान ! जीव सर्वयं है या अवीर्य है ? (उ०) जीव मवीर्य तथा अवीर्य दोनों प्रकारके है ? . (प्र०) हे करुणसिन्धु । इसका क्या कारण है।
(उ०) जीव दोय प्रकरके है (१) सिद्ध (२) संसारी निस्मे सिड हे सोतों कारण वीर्य अपेक्षा अवीय है क्युकि उन्होंको तों उस्थानादि योग्य व्यापार क्रिया हे ही नहीं। और संसारी जीवोंके दोय मेद है । (१) सलेश प्रतिपन्न चौदह वा अयोग गुण थान व ले जी अव य है (२) असलेश प्रतिपन्न प्रथमसे तेरहवा गुणस्थ नके जीव सवीर्य है इसमें भी प्रथम दुमरा और चोथा गुणस्थान परभव गमन समय होते है उसमें जो विग्रह गति करते है इतने समय लब्धिवीर्य अपेक्षा सवीय है और करण वीर्य अपेक्षा अवीर्य है।
(प्र) हे भगवान् । नारकी क्या सवीर्य है या अवीय है ।
(उ) सवीर्य है परन्तु परभव गमनापेक्षा लब्धिवीर्य अपेक्षा सवीर्य और करणवीर्य अपेक्षा अवीर्य है शेष समय सवीर्य है एवं मनुष्य वर्जके शेष २३ दंडक सादृश ही समझना । मनुष्यका दंडक समुच्चय सुत्रकि माफिक समझना, मावना पूर्ववत समझना।
इति । सेवं भंते सेव भंते तमेव सचम् ।