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हे भगवन् ! उसको केवलीप्ररुपित धर्म सुना सके ? हां, धर्म सुना सके. हे भगवन् ! वह धर्म श्रवण कर श्रद्धा प्रतीत रुचि करे ? नहीं करे. परन्तु वह अरण्यवासी तापस तथा ग्राम नजदीकवासी तपस्वी रहस्य ( गुप्तपने ) अत्याचार सेवन करनेवाले विशेष संयमत्रत यद्यपि व्यवहार क्रियाकल्प रखते भी हो, तो भी सम्यक्त्व न होनेसे वह कष्टक्रिया भी मज्ञानरुप है, और सर्व प्राणभूत जीव-सत्त्वकी घातसे नहीं निर्वृति पाइ है, अपने मान, पूजा रखनेके लीये मिश्रभाषा चोलते है, तथा आगे कहेंगे-ऐसी विपरीत भाषा बोलते है. हम उत्तम है, हमको मत मारो, अन्य अधर्मी है, उसको मारो. इसी माफिक हमको दंडादिका प्रहार मत करो, परि. ताप मत दो, दुःख मत दो, पकडो मत, उपद्रव मत करो, यह सब अन्य जीवोंको करो, अर्थात् अपना सुख वांछना
और दूसरोको दुख देना, यह उन्होंका मूल सिद्धान्त है, वह बाल, अज्ञानी, स्त्रीयों संबन्धी कामभोगमें गृद्ध मूछित हुवे काल प्राप्त हो, आसुरीकाय तथा किल्विषीया देवोंमें उत्पन्न हो, वहांसे मरके वारवार हलका बकरे (मींढे ) गुंगे, लूले, लंगडे, बोबडेपनेमें उत्पन्न होगा. हे आर्य! उक्त निदान करनेवाला जीव धर्मपर श्रद्धाप्रतीत रुचि करनेवाला नहीं होता है. ॥ इति ॥
(७) हे आर्य ! मैं जो धर्म कहा है, वह सर्व दुःखोंका