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(८) आठवी वाड-लुखा सुखाहार करता हो वह भी पि माणसे अधिक न करना, कारण अधिक आहार करनेसे शरीर में - उन्माद होता है आलस प्रमाद होता है यह सब विकार उत्पन करनेवाला है जैसे शेर धान्य पचाने योग्य मटोकि हांडीमे सवा शेर पचाया जाये तों हाडी फुट जाती है वास्ते ब्रह्मचारीयोंको निःरसाहर भी अनोदरी करते हुवे भोजन करे तांके कीसी प्रकारकि व्याधि न होवे | अ० करेगा० पूर्व० भ्रष्ट होगा ।
(९) नववी वाढ - ब्रह्मचारीयोंकों अपने शरीरकि विभूषा -- - स्नान करना मालस करना अत्तर तैल चंदनादिका लगाना सुन्दर भूषण के पेहरना इत्यादि शृंगार शोभा न करना कारण यह भी विषयविकार कामदेवका आदर करना है जैसे कि कजलकि कोटडी में निवास करनेसे किसी प्रकारसे काला कलंकसे बच नही शक्ता वास्ते ब्रह्मचारीयोंको शरीर विभूषा न करनि चाहिये । पूर्ववत् ।
(१०) दशवा क्रोट- ब्रह्मचारीयोंको अच्छे शब्दों पर कुशी और बुरे शब्दों पर नाराजी न लानी चाहिये, एवं सुन्दर रूप देखके कुशी खराब रूप देखके नाराजी न करना, एवं अच्छे सुवासीत पदार्थों पर कुशी और दुर्गंध पदार्थोंपर नाराजी न करना, एवं स्वादीष्ट मनोज्ञ भोजनों पर कुशी और अमनोज्ञ पर नाराजी न करना, एवं अच्छ कोमल मनोज्ञा स्पर्शपर कुशी और अमनोज्ञ पर नाराजी न करना चाहिये अर्थात् जो काम विकारोत्पन्न करने योग्य तथा इन्द्रियों पोषक पदार्थ हे उन्हो पर - रागद्वेष न करना चाहिये क्युकि यह नासमान पौदगलोंसे यह जीव अनादि कालसे नरक निगोदके दुःखोंका अनुभव कर राहा