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काल कर घोर अंधकार व्याप्त धरणीतले नरकगतिको प्राप्त होता है.
वह नरकाबास अन्दरसे वर्तुल ( गोलाकार ) बाहरसे चोरस है. जमीन छुरी-अस्तरे जैसी तीक्षण है. सदैव महा अन्धकार व्याप्त, ज्योतिषीयोंकी प्रभा रहित और रौद्र, मांस, चरबी, मेद, पीपपडलसे व्याप्त है. श्वान, सर्प, मनुष्यादिक मृत कलेवरकी दुर्गन्धसे भी अधिक दुर्गन्ध दशों दिशामें व्याप्त है. स्पर्श बडा ही कठिन है. सहन करना बडा ही मुश्कील है. अशुभ नरक, अशुभ नरकवाला वहांपर नारकीके नैरिय किंचित भी निद्रा-प्रचला करना, सुना, रतिवेदनेका तो स्वम भी कहांसे होवे ? सदैवके लिये विस्तरण प्रकारकी उज्वल, प्रकृष्ट, ककेश, कटुक, रौद्र, तीत्र, दुःख सहन कर सके ऐसी नारककी अन्दर नैरिया पूर्वकृत कर्मोंको भोगवते हुवे विचरते है.
जैसे दृष्टान्त-पर्वतका उन्नत शिखरपरसे मूल छेदा हुवा वृक्ष अपने गुरुत्वपनेसे नीचे स्थान खाडे, खाइ, विषम, दुर्गम स्थानपर पडते है, इसी माफिक अक्रियावादी अपने किये हुवे पापकर्मरुप शस्त्रसे पुन्यरुप वृक्षमूलको छेदन कर, अपने कर्मगुरुत्व कर स्वयं ही नरकादि गतिमें गिरते है. फिर अनेक जाति-योनिमें परिभ्रमण करता हुवा एक गर्भसे दूसरे गर्भ में संक्रमण करता हुवा दक्षिणदिशागामी नारकी कृष्णपक्षी भविष्यकालमें भी दुर्लभबोधि होगा. इति अक्रियावादी.